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‘पियावसंत की खोज’ आज की एक ज्वलंत समस्या ‘दहेज प्रथा’ पर लिखा गया यथार्थवादी उपन्यास है। इस प्रथा के संदर्भ में यह उपन्यास लिखकर लेखक ने सामयिक धन्यता के क्षण बटोरने का प्रयास न कर तटस्थतावादी दृष्टिकोण अपनाया है, किंतु इसका यह अर्थ नहीं कि स्थितियों से उत्पन्न हो रही सामाजिक न्याय-अन्याय की प्रवृत्तियों के प्रति वह निर्लेप रहा है। निर्लेप होता तो इस ज्वलंत प्रश्न को स्पर्श ही नहीं करता।
उपन्यास में लेखक का तटस्थतावादी दृष्टिकोण प्रारंभ से अंत तक समाजशास्त्रीय प्रतिनिधि बनकर उभरा है। इसी कारण उसने कन्याओं के अभिभावकों की मनःशिराओं में बह रही दुहरी विचारधारा को विभिन्न चित्रों में रूपायित किया है और उन चिह्नों के व्याज से अपनी औपन्यासिक चिंतनसत्ता को सार्थक बनाने में अपनी पूर्वस्वीकृत समस्त विशिष्टताओं के साथ पाठकों के समक्ष प्रस्तुत हुआ है।
इस कृति में जहाँ ढलती हुई उम्र की अविवाहिताओं के प्रति लेखक की वेदना उभरी है, वहीं उसका न्यायाधीश का हृदय भी सजग रहा है कि समर्थ अभिभावक भी कन्याओं के देने के नाम पर बनावटी निढालपन का परिचय देते हैं। अतः दहेज प्रथा पर लिखा गया यह उपन्यास एक फैशन के रूप में नहीं बल्कि तथ्यपरकता का वह शीशा है, जो वादी-प्रतिवादी, दोनों को बेनकाब करता है। आशा है, इसी सामाजिक बोध के साथ यह उपन्यास पढ़ा जाएगा और समादृत होगा।
हिमांशु श्रीवास्तव हिंदी के उन सौभाग्यशाली लेखकों में से एक हैं, जिन्होंने साहित्यिक राजनीति के दल से अपने को सर्वथा बचाकर रखा और रचनाधर्मिता के क्षेत्र में अनेकशः कीर्तिमान स्थापित किए। उदाहरण के लिए यह निःसंकोच कहा जा सकता है कि इनके एक उपन्यास ‘लोहे के पंख’ के कथन, वर्णन विशद्ता और अनुभव-संसार को हिंदी का कोई अन्य उपन्यासकार अब तक छू नहीं सका; यों प्राणायाम बहुतों ने किए।हिमांशु श्रीवास्तव बिहार के सारण जिलांतर्गत हराजी ग्राम में सन् 1934 में जनमे और सन् 55-56 तक साहित्यिक छल-कपट नहीं, बल्कि अपनी प्रतिभा के कारण सभी धाराओं के समीक्षकों और लेखकों के लिए अविस्मरणीय कथाकार बन गए।अब तक बीस से अधिक उपन्यास, डेढ़ सौ कहानियाँ और तीन नाटक प्रकाशित हो चुके हैं। प्रथम श्रेणी के रेडियो नाटककार के रूप में स्वीकृत-स्थापित। मूर्धन्य समालोचक और साहित्यकार डॉ. रामकुमार वर्मा के शब्दों में—‘‘हिमांशु श्रीवास्तव के उपन्यासों ने हिंदी उपन्यास को गंगा जैसी उदात्तता प्रदान की है।’’