हिदी के कालजयी रचनाकार मुंशी प्रेमचंद की कहानियाँ जनसाधारण की समस्याओं, आकांक्षाओं, उलझनों, पारिवारिक विघटन, दहेज-प्रथा, बाल विवाह, राष्ट्रद्रोह, घूसखोरी, अंधविश्वास, ग्रामीण शोषण, आर्थिक वैषम्य इत्यादि विषयों को समेटे हुए अपने पाठकों से एक आत्मीय एवं भावनात्मक नाता जोड़ती हैं। उनकी कहानियों में समस्याओं की जितनी चर्चा है, समाधान की उससे ज्यादा। उनके पात्र अर्थगत दबावों से बेशक पीडि़त हैं, पर वे बाहरी संघर्षों द्वारा समस्याओं पर विजय प्राप्त करने का प्रयास करते हैं। उन्होंने अपनी कथाओं में नग्न यथार्थ नहीं, वरन् यथार्थ का भरसक चित्रण किया है, क्योंकि नग्न यथार्थ वितृष्णा उपजाता है। पात्र कभी सुख की अनुभूति करते हैं तो कभी दुःख की। इसी को रचनाओं के साथ साहित्यिक न्याय कहा जाता है, जिस पर मुंशी प्रेमचंद खरे उतरे हैं। ‘21 अनमोल कहानियाँ’ उनके ऐसे ही नगीने हैं, जो आज भी प्रासंगिक हैं और समाज की विद्रूपताओं पर गहरी चोट करते हैं।
Premchand
मुंशी प्रेमचंद
उपन्यास सम्राट् मुंशी प्रेमचंद हिंदी और उर्दू के सर्वाधिक लोकप्रिय उपन्यासकार, कहानीकार एवं विचारक थे। उन्होंने ‘सेवासदन’, ‘प्रेमाश्रम’, ‘रंगभूमि’, ‘निर्मला’, ‘गबन’, ‘कर्मभूमि’, ‘गोदान’ आदि लगभग डेढ़ दर्जन उपन्यास तथा ‘कफन’, ‘पूस की रात’, ‘पंच परमेश्वर’, ‘बड़े घर की बेटी’, ‘बूढ़ी काकी’, ‘दो बैलों की कथा’ आदि तीन सौ से अधिक कहानियाँ लिखीं। उन्होंने अपने दौर की सभी प्रमुख हिंदी पत्रिकाओं ‘जमाना’, ‘सरस्वती’, ‘माधुरी’, ‘मर्यादा’, ‘चाँद’, ‘सुधा’ आदि में लिखा। उन्होंने हिंदी समाचार-पत्र ‘जागरण’ तथा साहित्यिक पत्रिका ‘हंस’ का संपादन और प्रकाशन भी किया। प्रेमचंद के लेखन में अपने दौर के समाजसुधार आंदोलनों तथा स्वाधीनता संग्राम के सामाजिक प्रभावों का स्पष्ट वर्णन है। उनमें दहेज, अनमेल विवाह, पराधीनता, लगान, छुआछूत, जाति भेद, विधवा विवाह आदि तत्कालीन सभी प्रमुख समस्याओं का चित्रण मिलता है। 1908 ई. में उनका पहला कहानी-संग्रह ‘सोजे-वतन’ प्रकाशित हुआ। देशभक्ति की भावना से ओतप्रोत इस संग्रह को अंग्रेजी सरकार ने प्रतिबंधित कर दिया और इसकी सभी प्रतियाँ जब्त कर लीं तथा भविष्य में लेखन न करने की चेतावनी दी। इसके कारण उन्हें नाम बदलकर ‘प्रेमचंद’ के नाम से लिखना पड़ा।
स्मृतिशेष : 8 अक्तूबर, 1936