अपनी कहानियों के माध्यम से समाज का जो सरल, सटीक और जीवंत चित्रण हमें मुंशी प्रेमचंद की कहानियों में दिखाई पड़ता है, अन्यत्र सर्वथा दुर्लभ है। उनकी कहानियों में राष्ट्र और समाज की जिन संगतियों व विसंगतियों को उकेरा गया है, किसी पारखी रचनाकार द्वारा ही ऐसा सूक्ष्म विवेचन संभव हो पाता है। जीवन की कठोर वास्तविकता, जमींदारों, महाजनों के कर्ज तले छटपटाते किसानों का अंतर्द्वंद्व, नौकरीपेशा मध्यम वर्ग की आजीविका के लिए जद्दोजहद, कुप्रथाओं और आडंबरों का अंधानुकरण, अछूतों की प्रताड़ना, धर्म के नाम पर ढोंग, विदेशी आक्रांताओं के हमले तथा डंडे के बल पर शासन जैसे व्यापक तात्कालिक विषयों को लेकर उपन्यास सम्राट् मुंशी प्रेमचंद ने अपनी रचनाओं को साकार किया। मुंशी प्रेमचंद की रचनाएँ बेशक वर्षों पहले के समाज का आईना हैं; लेकिन घटनाक्रम आज भी ताजा लगता है। कहानियाँ पढ़कर जाना जा सकता है कि समाज में आज भी उन विसंगतियों को चारों ओर व्याप्त देखा जा सकता है। विषय की व्यापकता, चरित्र-चित्रण की सूक्ष्मता, सशक्त संवाद, सजीव वातावरण, भाषा की गंभीरता प्रवाहमयी शैली तथा लोक-संग्रह की दृष्टि से प्रेमचंद की कहानियाँ अद्वितीय हैं। प्रस्तुत पुस्तक उनकी वैसी ही 31 अमर कहानियों का गुलदस्ता है; जिसकी महक अक्षुण्ण है।
Premchand
मुंशी प्रेमचंद
उपन्यास सम्राट् मुंशी प्रेमचंद हिंदी और उर्दू के सर्वाधिक लोकप्रिय उपन्यासकार, कहानीकार एवं विचारक थे। उन्होंने ‘सेवासदन’, ‘प्रेमाश्रम’, ‘रंगभूमि’, ‘निर्मला’, ‘गबन’, ‘कर्मभूमि’, ‘गोदान’ आदि लगभग डेढ़ दर्जन उपन्यास तथा ‘कफन’, ‘पूस की रात’, ‘पंच परमेश्वर’, ‘बड़े घर की बेटी’, ‘बूढ़ी काकी’, ‘दो बैलों की कथा’ आदि तीन सौ से अधिक कहानियाँ लिखीं। उन्होंने अपने दौर की सभी प्रमुख हिंदी पत्रिकाओं ‘जमाना’, ‘सरस्वती’, ‘माधुरी’, ‘मर्यादा’, ‘चाँद’, ‘सुधा’ आदि में लिखा। उन्होंने हिंदी समाचार-पत्र ‘जागरण’ तथा साहित्यिक पत्रिका ‘हंस’ का संपादन और प्रकाशन भी किया। प्रेमचंद के लेखन में अपने दौर के समाजसुधार आंदोलनों तथा स्वाधीनता संग्राम के सामाजिक प्रभावों का स्पष्ट वर्णन है। उनमें दहेज, अनमेल विवाह, पराधीनता, लगान, छुआछूत, जाति भेद, विधवा विवाह आदि तत्कालीन सभी प्रमुख समस्याओं का चित्रण मिलता है। 1908 ई. में उनका पहला कहानी-संग्रह ‘सोजे-वतन’ प्रकाशित हुआ। देशभक्ति की भावना से ओतप्रोत इस संग्रह को अंग्रेजी सरकार ने प्रतिबंधित कर दिया और इसकी सभी प्रतियाँ जब्त कर लीं तथा भविष्य में लेखन न करने की चेतावनी दी। इसके कारण उन्हें नाम बदलकर ‘प्रेमचंद’ के नाम से लिखना पड़ा।
स्मृतिशेष : 8 अक्तूबर, 1936