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सौंदर्य की सराहना करने का, उसे अपने भीतर प्रतिबिंबित देखने का मेरा दर्पण इतना अधिक चितकबरा हो गया कि मुझे अब कहीं नारी का सौंदर्य ही दिखाई नहीं पड़ता। मुझे इससे मानसिक पीड़ा अनुभव होती है। मैं नरम और गीले फूस की तरह, चारों ओर फैली हुई आग के बीच निर्द्वंद्व घूमता फिरता और मन में इस अभिमान को सँजोए रहा कि आग मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकती। किंतु कुछ ही दूर चलने पर मैंने ठिठककर देखा कि मेरा मिथ्याभिमान चूर-चूर हो गया है। मैंने अपने को विरक्ति के पानी से गीला कर रखा था, इसलिए आग कभी मेरे शरीर को प्रज्वलित नहीं कर सकी; किंतु सहसा ही मुझे लगा कि मेरा सारा अंतर भीतर-ही-भीतर सीझकर कभी का झुलस गया है और मेरा तन आग के धुएँ से काला पड़ गया है। मैं इस आग को अब और अधिक सहने में असमर्थ हूँ। नर और नारी के बीच अवैध संबंधों के विरुद्ध जो प्रतिबंध हमारे सामाजिक विधि-विधान ने लागू किए हैं उनका इतनी अधिक सतर्कता से पालन किया जाता है कि घूरकर देखते-देखते समाज की आँखों में मोतियाबिंद पड़ गया है। उसके शरीर में वासना का कोढ़ फूट निकला है। जो लोग अपनी निर्दोषिता पर गर्व करते हैं वे ही उसके हाथ जल्दी आते हैं; क्योंकि निर्भय होकर विचरना ही उनका सबसे बड़ा दोष होता है। —इसी उपन्यास से
जन्म उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जनपद के कस्बा शाहपुर में 15 अगस्त, 1927 को हुआ था। उनकी पहली कहानी ‘जीवन नैया’ सरसावा से प्रकाशित मासिक ‘अनेकांत’ में सन् 1941 में प्रकाशित हुई थी। श्री जैन ने अनेक पत्र-पत्रिकाओं का कुशल संपादन किया। वे सन् 1959 से 1974 तक उस समय की प्रसिद्ध बाल पत्रिका ‘पराग’ के संपादक रहे। उन्होंने ‘चंदर’ उपनाम से अस्सी से अधिक रोमांचकारी उपन्यासों का लेखन किया।
उन्होंने अनेक ऐतिहासिक और सामाजिक उपन्यास लिखे जिनमें प्रमुख हैं—‘कठपुतली के धागे’, ‘तीसरा नेत्र’, ‘कुणाल की आँखें’, ‘पलकों की ढाल’, ‘आठवीं भाँवर’, ‘तन से लिपटी बेल’, ‘अंतर्मुखी’, ‘ताँबे के पैसे’ तथा ‘आग और फूस’। उन्हें अपने इस सामाजिक उपन्यास ‘आग और फूस’ पर उत्तर प्रदेश सरकार का श्लाघनीय पुरस्कार प्राप्त हुआ।