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काँटेदार कलुष राजनीति के गलियारों में एक संवेदनशील आदर्शवादी प्रधानमंत्री, यदि साथ में अच्छे लोग भी पा जाए तो भारत का दुर्भाग्य कैसे सौभाग्य बन जाता, इसी सोच की यह कथा है। यह पुस्तक कुछ बड़े विवादास्पद प्रश्न उठाती है और भ्रष्ट प्रशासन से टूटे मन पर ओषधि का काम करती है। राष्ट्र के प्रति निष्ठ नागरिक, प्रशासन मंडली और शिव संकल्पमस्तु नेतृत्व यदि भारत को मिल जाते तो इसे अग्रगण्य होकर विश्व का नेतृत्व करने से भला कौन रोक पाता। यह पुस्तक यही विचारती है कि आदर्शवादी राजनीतिज्ञ, रणनीतिज्ञ और विजयी होना कदाचित् कठिन नहीं, यदि राष्ट्र और नागरिक हित सर्वोपरि हो। सब शिव संकल्पमास्तु हो।
7 नवंबर, 1938 को उन्नाव जिले के एक छोटे से गाँव में जनमे लेखक का परिचय हर वो भारतीय है, जो आज भी इस मूल्यरिक्त, स्वराष्ट्राभिमानरिक्त ‘इंडिया’ में रहकर ‘भारत’ को स्वयं में जीवित रखता है, जो आज भी आदर्शों से प्रेम करता है, जो आज भी सिद्धांतों की बात करता है, जिसे आज भी टूटना स्वीकार्य है, पर सिद्धांतों से समझौता नहीं।लेखक का पूरा जीवन कर्तव्यों को समर्पित रहा। हर बहस में अनेकों कर्तव्यों में भारत से प्रेम का कर्तव्य अडिग चला है। भारतप्रेम संस्कारों में उनके प्राथमिक पाठशाला के अध्यापक ने बो दिया था, ‘राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ’ के प्रणेता दयानंदजी के लोक दर्शन और उस समय की मीमांसाओं ने बढ़ती बहस के साथ उसे राष्ट्रप्रेम का वह वटवृक्ष बना दिया है, जहाँ अध्यात्म और भारतप्रेम एकरूप हो चुके हैं, जहाँ लेखक भारतीय आध्यात्मिकता के मूलभूत सिद्धांतों को भारत की हर समस्या के समाधान के लिए समुचित मानता है।