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"सुभाष मिश्र की पत्रकारिता की दुनिया में उपस्थिति और सक्रियता को लगभग चालीस बरस हो गए हैं। में खुद पिछले बीस बरसों में उनकी पत्रकारिता में मानवीय जीवन के व्यापक सरोकारों पर, व्यक्ति और समाज के अंतर्विरोधों पर, सत्ता, व्यवस्था और व्यक्ति के तनावों पर उनके लिखे गए को पढ़ता आया हूँ। उनकी लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति चिंताओं, उन मूल्यों को बचाए जाने की जिद और जरूरत ने हमेशा ही मेरे मन को छुआ है ।
इतिहास के फैसलों और फासलों पर ठहरती-ठिठकती उनकी कलम वह भी बताती है कि उनको अपने आसपास को अपने पास- पड़ोस को कितनी खुली, पैनी और गहरी नजरों से देखना आता है । अपने परिवेश और पर्यावरण को पकड़ती हुई उनके लिखे गए की पंक्तियाँ एक तरफ उनकी जागरूकता का परिचय देती है, तो दूसरी तरफ उनकी उस सहानुभूति, समानुभूति से हमारी पहचान कराती हैं, जो समाज और व्यक्ति के लिए उनके मन में रची-बसी रही है।
जीवन और जगत् को लेकर उनको बौद्धिक जिज्ञासाएँ भावनात्मक सतर्कता उनकी पत्रकारिता को कामचलाऊ, तात्कालिक पत्रकारिता से दूर ले जाती हैं । यही वह बात है, जो उनकी पत्रकारिता को साहित्य के करीब खड़े किए जाने का प्रयत्न करते हुए बताती है। उनको पढ़ते हुए हमें साहित्य और पत्रकारिता के अंतर्सबंधों का खयाल भी सताता है।"