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मन तुरंग को साधना बेहद टेढ़ी खीर।
वश में कर सकता इसे कोई एक कबीर।।
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आता है जीवन भरा, जाता खाली खोल।
मानव की भी त्रासदी ज्यों कुएँ की डोल।।
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बोल तोलकर बोलना, थी पुरखों की सीख।
मौन रतन अनमोल है, दो दमड़ी की चीख।।
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नेता का हर शब्द जब कहलाए कानून।
समझो तानाशाह को चढ़ने लगा जुनून।।
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पानी से रोशन किए, जिसने बुझे चिराग।
उस रूहानी आग में क्या तेरा कुछ भाग।।
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केवट का क्या भाग्य जगत को पार लगाता।
दो कूलों के बीच स्वयं बस आता-जाता।।
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ऐंठें हम सौ बार पर झुक भी लें दो बार।
दुखिया की दहलीज पर, दाता के दरबार।।
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सहनशीलता संस्कार तो सागर ने पाया।
जो छाती पर चढ़ा उसे भी पार लगा लाया।।
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आओ चलो मॉल अपने से कुछ खरीद कर आएँ।
बीस ग्राम मिट्टी, चुल्लू भर जल/वायु भर लाएँ।।
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बार-बार पढ़ते रहें पुरखों लिखे निबंध।
नत-मस्तक धारण करें शीतल मंद सुगंध।।
जन्म : उत्तर प्रदेश के जिला मेरठ (अब बागपत) अंतर्गत ग्राम खेकड़ा के संभ्रांत, सुशिक्षित, समाजसेवी, जमींदार वैष्णव परिवार में।
शिक्षा : हिंदी, अंग्रेजी एवं शिक्षा विषयों में स्नातकोत्तर तथा शोधार्थी।
पद/दायित्व : पूर्व प्राचार्य; निदेशक, ब्यूरो ऑफ टैक्स्ट बुक्स; सदस्य, हिंदी अकादमी, दिल्ली; राष्ट्रीय महासचिव, अखिल भारतीय साहित्य परिषद्।
प्रकाशन : हिंदी एवं अंग्रेजी भाषा में एक दर्जन से अधिक पुस्तकें प्रकाशित।
संप्रति : स्वान्त: सुखाय स्वाध्याय एवं स्वतंत्र लेखन।