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आपातकाल
के उन काले दिनों को कभी भुलाया नहीं जा सकता। 1975 से 1977
के दौर में हमारे देश ने देखा कि किस तरह से संस्थाओं का विध्वंस किया गया।
आइए, हम संकल्प लेते हैं कि भारत की लोकतांत्रिक भावना को
मजबूत बनाए रखने के लिए हरसंभव प्रयास करेंगे और संविधान में तय किए गए मूल्यों
के अनुसार रहेंगे।
—नरेंद्र मोदी
25 जून,
2021 का ट्वीट
25जून, 1975 को
भारतीय लोकतंत्र के इतिहास के एक काले दिन के रूप में याद किया जाएगा। इसी दिन
दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र पर आपातकाल थोपा गया था।
21
महीने के आपातकाल के स्याहखंड के दौरान इसके विरुद्ध चले संघर्षों ने भारत के
लोकतंत्र को और मजबूत बनाने का कार्य किया।
राष्ट्रीय
स्वयंसेवक संघ के युवा कार्यकर्ता के रूप में नरेंद्र मोदी ने इसमें अहम् भूमिका
निभाई थी।
यह पुस्तक आपातकाल के विरुद्ध संघर्ष में नरेंद्र
मोदी के प्रयासों पर संक्षेप में प्रकाश डालने का एक प्रयास
है।
गुजरात के मेहसाना जिले के वडनगर में जनमे श्री मोदी राजनीतिशास्त्र में एम.ए. हैं। स्वयंसेवक के रूप में संघ संस्कार एवं संगठन वृत्ति के साथ अनेक महत्त्वपूर्ण पदों पर रहते हुए1999 में वे भाजपा के अखिल भारतीय महामंत्री बने। सोमनाथ-अयोध्या रथयात्रा हो या कन्याकुमारी से कश्मीर की एकता यात्रा, उनकी संगठन शक्ति के उच्च कोटि के उदाहरण हैं। गुजरात का नवनिर्माण आंदोलन हो या आपातकाल के विरुद्ध भूमिगत संघर्ष, प्रश्न सामाजिक न्याय का हो या किसानों के अधिकार का, उनका संघर्षशील व्यक्तित्व सदैव आगे रहा है।
ज्ञान-विज्ञान के नए-नए विषयों को जानना उनकी स्वाभाविक प्रवृत्ति है। उन्होंने जीवन-विकास में परिभ्रमण को महत्त्वपूर्ण मानते हुए विश्व के अनेक देशों का भ्रमण कर बहुत कुछ ज्ञानार्जन किया है।
अक्तूबर 2001 में गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में पद सँभालने के बाद उन्होंने प्रांत के चहुँमुखी विकास हेतु अनेक योजनाएँ प्रारंभ कीं—समरस ग्राम योजना, विद्या भारती, कन्या केलवानी योजना, आदि। स्वामी विवेकानंद के सिद्धांत ‘चरैवेति-चरैवेति’ पर अमल करते हुए निरंतर विकास कार्यों में जुटे श्री मोदी को बीबीसी तथा बिजनेस स्टैंडर्ड ने ‘गुजरात का इक्कीसवीं सदी का पुरुष’ बताया है।
आज भारत में ‘सुशासन’ की गहन चर्चा हो रही है। मुख्यमंत्री के रूप में कम समय में ही श्रेष्ठ प्रशासक और सुशासक के रूप में भारत की प्रथम पंक्ति के नेताओं में उनका नाम लिया जाता है।