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आज तक हम अनेक बलों के बारे में सुनते आए हैं। जैसे शरीर के बल को बाहुबल कहा जाता है, बुद्धि के बल को बुद्धिबल कहा जाता है तो मन के बल को मनोबल या संकल्प शक्ति का बल कहा जाता है। इन सभी बलों को जोड़नेवाला बल ‘संपूर्ण बल’ कहलाता है। इसे आत्मन बल (आत्मबल) भी कहा जा सकता है। आत्मन बल—मन, शरीर और बुद्धि के जोड़ से प्रकट होता है। इस बल के साथ आत्म ज्ञान होना भी जरूरी है वरना यह बल संपूर्ण बल नहीं बन सकता।
यदि आत्मन बल नहीं है तो सारे बल प्राप्त करके भी इनसान अधूरा ही रहता है, महाबली नहीं बन सकता। इसलिए महाबली हनुमान के गुणों को ग्रहण करने के लिए उनकी गहराई में जाना अत्यंत आवश्यक है।
यदि इनसान के अंदर आत्मन बल है तो बाकी बल आसानी से प्राप्त किए जा सकते हैं। आत्मविकास पर काम करनेवालों में से कुछ लोग बाहुबल को या मनोबल को ज्यादा महत्त्व देते हैं तो कुछ लोग बुद्धिबल को ही श्रेष्ठ समझते हैं। इस अधूरी समझ के कारण वे जीवन में उच्च अभिव्यक्ति नहीं कर पाते।
इस पुस्तक में हनुमान को ‘ग्लोबल हनुमान’ यह नया नाम इसलिए दिया गया है, क्योंकि हनुमान के गुणों और बलों की आवश्यकता आज पूरे ग्लोब अर्थात् विश्व को है। वरना इनसान इस संभ्रम में पड़ सकता है कि यह अनोखा अवतार केवल भारत तक ही सीमित है। ऊपर बताए गए सभी बलों को धारण करनेवाले महामानव, सुपरमैन का रूप हमें हनुमान में दिखाई देता है, इसलिए भी इस पुस्तक में ‘आत्मन बल’ को ‘ग्लो बल’ नाम दिया गया है
तेजगुरु सरश्री की आध्यात्मिक खोज उनके बचपन से प्रारंभ हो गई थी। अपने आध्यात्मिक अनुसंधान में लीन होकर उन्होंने अनेक ध्यान-पद्धतियों का अभ्यास किया। उनकी इसी खोज ने उन्हें विविध वैचारिक और शैक्षणिक संस्थानों की ओर अग्रसर किया।
सत्य की खोज में अधिक-से-अधिक समय व्यतीत करने की प्यास ने उन्हें अपना तत्कालीन अध्यापन कार्य त्याग देने के लिए प्रेरित किया। जीवन का रहस्य समझने के लिए उन्होंने एक लंबी अवधि तक मनन करते हुए अपना अन्वेषण जारी रखा, जिसके अंत में उन्हें आत्मबोध प्राप्त हुआ। आत्म-साक्षात्कार के बाद उन्हें यह अनुभव हुआ कि सत्य के अनेक मार्गों की लुप्त कड़ी है—समझ (Understanding)।
सरश्री कहते हैं कि सत्य के सभी मार्गों का प्रारंभ अलग-अलग प्रकार से होता है, किंतु सबका अंत इसी ‘समझ’ से होता है। ‘समझ’ ही सबकुछ है और यह ‘समझ’ अपने आप में संपूर्ण है। अध्यात्म के लिए इस ‘समझ’ का श्रवण ही पर्याप्त है।
सरश्री ने दो हजार से अधिक प्रवचन दिए हैं और सत्तर से अधिक पुस्तकों की रचना की है। ये पुस्तकें दस से अधिक भाषाओं में अनूदित हैं और प्रमुख प्रकाशकों द्वारा प्रकाशित की गई हैं।