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अभिभावक और शिक्षक बालकों से आदर्श का अनुकरण कराने के लिए रामलीला एवं जीवनियों को नाटकों में परिवर्तित करने-कराने को प्रोत्साहन देते रहे हैं; लेकिन शिक्षा में मनोविज्ञान के प्रवेश ने बच्चों के नाटकों में इन्हें गौण बना दिया है। अब बच्चों की स्वाभाविक चेष्टाओं को नाटक में प्रस्तुत करना महत्त्वपूर्ण हो गया है तथा आधुनिक बोध में स्वाभाविक क्रियाओं की प्रस्तुति आवश्यक है। वीर रस की प्रस्तुति में बच्चों की स्वाभाविक रुचि रहती है। करुण तथा हास्य के कथानकों को बाल नाटकों का विषय बनाने से दर्शक बालकों पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है।
बाल नाटक शिक्षा की दृष्टि से बहुत उपयोगी हैं। शैक्षिक पाठ्यक्रमों में इनका प्रवेश कलात्मकता, सरलता और रोचकता उत्पन्न करता है। बच्चे स्वयं रंगमंच तैयार करते हैं, संवाद लिखते-बोलते हैं। यत्किंचित् प्रेरणा देने की दिशा आवश्यक होती है। बाल नाटकों के इस संकलन ‘अब्बा की खाँसी’ में विभिन्न भाव, रस, रंग व तेवर के नाटक संकलित हैं। इनकी भाषा सहज, सरल, रोचक व चुटीली है। इसके लघु वाक्य प्रभावोत्पादक हैं। इनमें बोधगम्यता भी है और संप्रेषणीयता भी। विश्वास है, यह कृति पाठकों को पसंद आएगी।
जन्म : 2 अक्तूबर, 1933 को सहारनपुर में।
शिक्षा : एम.ए. (अंग्रेजी, हिंदी), बी.एड. बेसिक, पी-एच.डी. (हिंदी में बाल साहित्य का मनोवैज्ञानिक अध्ययन), संस्कृत विशारद, साहित्य रत्न।
प्रकाशन : ‘बालभूषण’, ‘नाचो-गाओ’, ‘कंतक थैयाँ घुनूँ मनइयाँ’, ‘लाक्षागृह’, ‘टेसूजी की भारतयात्रा’, ‘अब्बा की खाँसी’ (पुरस्कृत), ‘मकरंदी’, ‘विक्रमादित्य का सिंहासन’, ‘बावन गाँव इनाम में’, ‘ढेले पर किताबें’, ‘भारतीय प्रतिभाएँ’, ‘जादूगर फास्टस’, ‘चप्पा-चप्पा मध्य प्रदेश’।
सम्मान : ‘सूर पुरस्कार’, ‘बाल साहित्य भारती’ (उ.प्र. हिंदी संस्थान), ‘देवपुत्र गौरव सम्मान’।
आकाशवाणी, दूरदर्शन कार्यक्रमों में प्रतिभागिता। एन.सी.आर.टी., चिल्ड्रंस बुक ट्रस्ट, नेशनल बुक ट्रस्ट, प्रकाशन विभाग, भारत सरकार की गोष्ठियों में आमंत्रित। भारतीय बाल कल्याण संस्थान कानपुर के संस्थापक-संरक्षक और ‘बाल साहित्य समीक्षा’ मासिक के संपादक।