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आज नोबल पुरस्कार के संबंध में कौन नहीं जानता! जी हाँ, दुनिया का सबसे बड़ा पुरस्कार। नोबल पुरस्कार विश्व के महान् व सुविख्यात व्यक्ति अल्फ्रेड नोबल के नाम पर पड़ा। इसकी भी अपनी रोचक कहानी है।
अल्फ्रेड नोबल को अपने जीवन में जितनी खुशियाँ यदा-कदा मिलीं, उनसे बहुत ज्यादा दु:ख उन्हें झेलने पड़े। उन्होंने बचपन में तरह-तरह की शारीरिक व मानसिक पीड़ाएँ झेलीं और पिता के दो बार दिवालिया होने के कारण भयंकर गरीबी और अन्य यंत्रणाएँ भी भुगतीं।
वे अपने आविष्कारों में सफल रहे, पर जीवनसाथी पाने में असफल। उनके उद्योग फूलते-फलते रहे, पर पारिवारिक संसार उजाड़ ही रहा। दानवीर नोबल पर देशद्रोह का आरोप लगा और वे दर-बदर भी हुए। उनकी मृत्यु का समाचार गलती से उनकी मृत्यु से काफी पूर्व ही एक समाचार-पत्र में छप गया और इस क्रम में उनकी ऐसी छीछालेदर हुई थी कि वे न केवल जीवन से डरने लगे वरन् इस बात पर भी काँप उठते थे कि कहीं मृत्यु के बाद उनके शव की दुर्गति न हो। अपने अंतिम क्रियाकर्म का नया त्वरित उपाय भी उन्होंने अपने आविष्कारी मस्तिष्क द्वारा निकाल लिया था।
पर क्या दुर्गति रुक पाई। आखिर कैसे उनका व्यक्तित्व व कृतित्व उस फूल की तरह खिला, जो हर वर्ष अपने मोहक सौंदर्य व प्रेरक सुगंध से पूरे संसार को अपने आविष्कारी पथ पर तेजी से, निर्बाध रूप से लिये चल रहा है? आइए, पढ़ें अल्फ्रेड नोबल की जीवन-गाथा।
जन्म : 12 जनवरी, 1960 को इटावा (उ.प्र.) में।
शिक्षा : विकलांग होने के बावजूद हाई स्कूल तथा इंटरमीडिएट की परीक्षाएँ प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण कीं। सन् 1983 में रुड़की विश्वविद्यालय से इंजीनियरिंग की उपाधि प्राप्त कर सेंट्रल इलेक्ट्रॉनिक्स लिमिटेड (CEL) में सहायक अभियंता के रूप में नियुक्त हुए। विभिन्न विभागों में काम करते हुए आजकल मुख्य प्रबंधक के रूप में काम कर रहे हैं।
अब तक कुल 32 पुस्तकें तथा विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लगभग 300 लेख प्रकाशित।
पुरस्कार-सम्मान : सन् 1996 में राष्ट्रपति पदक, 2001 में ‘हिंदी अकादमी सम्मान’ तथा योजना आयोग द्वारा ‘कौटिल्य पुरस्कार’। सन् 2003 में अपारंपरिक ऊर्जा स्रोत मंत्रालय द्वारा ‘प्राकृतिक ऊर्जा पुरस्कार’, 2004 में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा ‘सृजनात्मक लेखन पुरस्कार’, विज्ञान व प्रौद्योगिकी मंत्रालय द्वारा ‘डॉ. मेघनाद साहा पुरस्कार’ तथा महासागर विकास मंत्रालय द्वारा ‘हिंदी लेखन पुरस्कार’।