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आम धारणा है कि अर्जुन वास्तव में युद्ध से विरत हो रहे थे, वह तो भगवान् श्रीकृष्ण ने ही उन्हें युद्ध में ढकेल दिया। इस भ्रांत धारणा की जगह इस विषय में सुधीजन सुविचारित मत बना सकें, उनकी सहायता हेतु इस पुस्तक की रचना हुई है। इस हेतु महाभारत युद्ध-पूर्व की हलचलों का संज्ञान लिया है और युद्धभूमि पर पदार्पण के समय की चर्चा भी की गई है। गीता के ज्ञान ने अर्जुन को कतई बरगलाने का काम नहीं किया था, अपितु उन्होंने इस ब्रह्मज्ञान को हृदय से स्वीकार किया था। इसका प्रमाण उनकी शांतिकाल की जिज्ञासा के वर्णन में दिया गया है। इस प्रसंग में ‘अनुगीता’ पर भी संक्षिप्त चर्चा की गई है। इससे महाभारत ग्रंथ के ज्ञान के खजाने के रूप में भी पाठक को कतिपय परिचय मिल सकेगा।
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अनुक्रम
लेखक की बात — 5
1. पूर्व परिचय अर्जुन-दृष्टि एवं धृतराष्ट्र-दृष्टि — 9
2. अर्जुन दृष्टि दुविधा और शरणागति — 20
3. अर्जुन की मनःस्थिति मोह-निशा — 28
4. द्वारिकाधीश का भूमिका चयन — 52
5. द्वारिकाधीश बने पांडवदूत — 54
6. द्वारिकाधीश कृष्ण का दौत्यकर्म — 65
7. द्वारिकाधीश दूत के रूप में हस्तिनापुर में — 67
8. उलूक कांड — 86
9. धृतराष्ट्र दृष्टि — 100
10. अर्जुन और श्रीमद्भगवद्गीता — 128
जन्म : 29 नवंबर, 1951 को ग्राम-बिलरही जिला-महोबा (उ.प्र.) बुंदेलखंड।
शिक्षा : प्रारंभिक शिक्षा गाँव में; प्रयाग विद्यालय से एम.एस-सी.। 1974 में आई.पी.एस. में योगदान। सेवाकाल में एल-एल.बी., पी-एच.डी. की उपाधियाँ अर्जित।
प्रकाशन : कवि, लेखक एवं नाटककार। हिंदी, अंग्रेजी में कुल तेरह पुस्तकें प्रकाशित। स्वामी विवेकानंद द्वारा स्थापित मासिक पत्रिका ‘प्रबुद्ध भारत’ में आलेख प्रकाशित। रामकृष्ण मिशन इंस्टीट्यूट ऑफ कल्चर, कोलकाता के प्रतिष्ठत फाउंडेशन डे ओरेशन 2012 का वक्तृता का सौभाग्य प्राप्त।
बिहार के पुलिस महानिदेशक पद से सेवा-निवृत्त। झारखंड सरकार के सुरक्षा सलाहकार (राज्यमंत्री समतुल्य) पद पर एक वर्ष से अधिक कार्य, तदोपरांत पद से त्याग-पत्र।
संपर्क : deokinandan.gautam@gmail.com