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जिस प्रकार नदी का पानी बहते-बहते मिलता भी है तो बिछुड़ता भी है, पुराने तटों को छोड़ता है तो नए तट पकड़ता भी है, उसी प्रकार हम संसार के प्राणी जीवन से जीवन, स्थान से स्थान और काल से काल तक की यात्राओं में मिलते-बिछुड़ते रहते हैं।
असतो मा सद्गमय
में जीवन के सनातन पहलुओं से गुजरती हुई कथा आधुनिक राजतांत्रिक और अफसरशाही तक भारत में व्याप्त भ्रष्टाचार की कथा भी है तो हमारी पुरातन, परंतु नित नवीन आध्यात्मिक भारत की कथा भी है। इस कथा में भक्ति, ज्ञान, अहंकार, उच्चाकांक्षा, संतोष, भाग्य, पदलिप्सा, लोभ, कर्म, स्नेह, औदार्य—सभी भाव समाहित हैं। यह कथा जीवन की सभी कलाओं से परिचय कराती है तथा चेतावनी देती है कि बुरे कर्मों का परिणाम बुरा ही होता है।
प्रस्तुत उपन्यास की कथा यथार्थ की भूमि से निकली है, जिसे प्रसिद्ध लेखिका रेणु ‘राजवंशी’ गुप्ता ने अपने विद्यार्थी जीवन में निकट से देखा था।
इस उपन्यास को पढ़कर पाठक एक ओर भारतीय पुलिस तंत्र की पदलिप्सा, भ्रष्टता, उच्चाकांक्षा तो दूसरी ओर ईमानदारी, स्नेह और औदार्य से परिचित होंगे।
रेणु ‘राजवंशी’ गुप्ता
जन्म : 20 अक्तूबर, 1957 को कोटा (राजस्थान) में।
शिक्षा : एम.ए. (अंग्रेजी), बी.ए. ऑनर्स (संस्कृत)।
कार्यक्षेत्र : व्यवसाय एवं साहित्य-लेखन। अनेक वर्षों तक कंप्यूटर साइंस का अध्यापन करने के पश्चात् अपने व्यवसाय में व्यस्त। जहाँ व्यवसाय उनके बाह्य जीवन को चलाए रखता है वहीं साहित्य, लेखन और स्वाध्याय आंतरिक जीवन को गतिशील रखता है। भटकन, उद्विग्नता, व्याकुलता और जीवन-मूल्यों की खोज को वह अपनी शक्ति मानती हैं।
कृतियाँ : ‘प्रवासी स्वर’ (काव्य-संग्रह); ‘कौन कितना निकट’, ‘जीवन लीला’ (कहानी-संग्रह)।
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