आठ वर्ष की बाल्यावस्था से ही आचार्यश्री धर्मेन्द्र महाराज भारत के ग्राम-ग्राम में अपनी प्रखर वाणी द्वारा धर्मद्रोहियों के हृदयों को प्रकम्पित और धर्मप्रेमियों में नवजीवन का संचार कर रहे हैं. उनकी वाणी में भगवती सरस्वती स्वयं निवास करती हैं। उनके तर्क अकाट्य होते हैं और उनकी विवेचनापूर्ण शैली अत्यन्त सुबोध और हृदयग्राहिणी होती है। हिन्दू धर्म, जाति और हिन्दुस्थान के हितों की रक्षा के लिए पूज्य आचार्यश्री ने अपने स्वनामधन्य पिताश्री के समान ही अनेक अनशन, सत्याग्रह, आन्दोलन और कारावास किये हैं. प्रायः सभी गोरक्षा आन्दोलनों और श्रीराम जन्मभूमि मुक्ति आन्दोलन के वे अग्रगण्य नेता रहे हैं। वस्तुतः आचार्यश्री का व्यक्तित्व वज्र के समान कठोर और पुष्प के समान कोमल है। आचार्यश्री अनेक दिव्य ग्रन्थों के प्रणेता, रससिद्ध कवि, समीक्षक, गम्भीर चिन्तक और श्रेष्ठ सम्पादक के साथ-साथ मनोहारी गायक भी हैं. व्यासपीठ पर विराजमान आचार्यश्री साक्षात् शुकदेव के समान धर्मतत्त्व का निरूपण करके विराट् श्रोता समूह को मन्त्रमुग्ध कर देते हैं। 1942 में अवतीर्ण आचार्यश्री को उनके पूज्य गुरुदेव और पिताश्री ने 1978 में श्री पंचखंड पीठ के आचार्यपीठ पर विधिवत् अभिषिक्त किया. आज वे भारत के सन्त समुदाय में देदीप्यमान नक्षत्र के समान अपनी कीर्ति-प्रभा विकीर्ण कर रहे हैं।