निर्मल वर्मा (1929-2005) भारतीय मनीषा की उस उज्ज्वल परंपरा के प्रतीक-पुरुष हैं, जिनके जीवन में कर्म, चितंन और आस्था के बीच कोई फाँक नहीं रह जाती। कला का मर्म जीवन का सत्य बन जाता है और आस्था की चुनौती जीवन की कसौटी। ऐसा मनीषी अपने होने की कीमत देता भी है और माँगता भी। अपने जीवनकाल में गलत समझे जाना उसकी नियति है और उससे बेदाग उबर आना उसका पुरस्कार। निर्मल वर्मा के हिस्से में भी ये दोनों बखूब आए।
स्वतंत्र भारत की आरंभिक आधी से अधिक सदी निर्मल वर्मा की लेखकीय उपस्थिति से गरिमांकित रही। अपने लेखन में उन्होंने न केवल मनुष्य के दूसरे मनुष्यों के साथ संबंधों की चीर-फाड़ की, वरन् उसकी सामाजिक, राजनैतिक भूमिका क्या हो, तेजी से बदलते जाते हमारे आधुनिक समय में एक प्राचीन संस्कृति के वाहक के रूप में उसके आदर्शों की पीठिका क्या हो, इन सब प्रश्नों का भी सामना किया।
अपने जीवनकाल में निर्मल वर्मा साहित्य के लगभग सभी श्रेष्ठ सम्मानों से समादृत हुए, जिनमें साहित्य अकादेमी पुरस्कार, ज्ञानपीठ पुरस्कार, साहित्य अकादेमी महत्तर सदस्यता उल्लेखनीय हैं। भारत के राष्ट्रपति द्वारा तीसरा सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘पद्मभूषण’ उन्हें सन् 2002 में दिया गया। अक्तूबर 2005 में निधन के समय निर्मल वर्मा भारत सरकार द्वारा औपचारिक रूप से नोबल पुरस्कार के लिए नामित थे।