₹200
“ददा से भेंट करे बर गए रहै का, दाई?”
“हाहो।”
“भेंट होए रहिसे?”
“ना, टाइम नहीं रहिसे, कल आए बर बोले हे।”
“दाई, शिवराम कका आए रहै।”
“अच्छा, क्या कहता रहा?”
“कहता रहा, कोरट से जमानत कराना हो तो जमानतदार लाना होगा, वकील करना होगा।”
“हाँ, ये तो है।” लक्षन ने एक आह भरी थी, “घर मा मनखे जात के रहे ले घर के मरजादा तोपाय रहिथय, मनखे बिगर सबके डौकी जात के कोनों पूछ नई होवय।”
दिन भर थाने, जेल, सुनार सबके पास से दुरदुराए जाने की पीड़ा लक्षन के स्वर में उभर आई थी।
“दाई, का राँधवो?” मनबोधनी उसके सिरहाने चिंतित खड़ी थी।
“कुछ कानी राँध ले।” लक्षन दिन भर के परिश्रम व थकान के कारण नीम बेहोश-सी हो चली थी। ताप की कमजोरी तो थी ही देह में।
“हाहो।”
—इसी उपन्यास से
हमारे देश में सभ्य और संभ्रांत समाज से इतर एक ऐसा समाज भी है, जो झोंपड़-पट्टी में रहकर दुनिया के तमाम दु:ख भोगता है। इसे उसकी नियति कहें या विडंबना अथवा क्या? प्रस्तुत उपन्यास में ऐसे ही समाज के रहन-सहन, आचार-विचार, रीति-रिवाज, शादी-विवाह आदि का बड़ी खोजपरक दृष्टि से विशद वर्णन पाठकों के सामने प्रस्तुत किया गया है। यह उपन्यास मनोरंजन के साथ-साथ पाठकों को बहुत कुछ सोचने के लिए भी विवश करता है।
उडि़या में जनमी डॉ. स्नेह मोहनीश की शिक्षा-दीक्षा छत्तीसगढ़ में हुई। वहीं रविशंकर विश्वविद्यालय से हिंदी में स्नातकोत्तर तथा पी-एच.डी. की उपाधि प्राप्त की। तदनंतर पत्रकारिता में डिप्लोमा प्राप्त किया।
कृतियाँ—‘रुकती नहीं नदी’, ‘कल के लिए’, ‘अंतिम साक्ष्य’ (उपन्यास); ‘बौर फागुन का’, ‘एक मसीहा की वापसी’, ‘कन्हाई चरण ढोल मर गया’, ‘जवा कुसुम’ (कहानी संग्रह)।
उपन्यास ‘अंतिम साक्ष्य’ सन् 1994-95 में ‘अखिल भारतीय पे्रमचंद पुरस्कार’ से पुरस्कृत। वर्ष 1998 में कहानी-संग्रह ‘जवा कुसुम’ भी ‘अखिल भारतीय प्रेमचंद पुरस्कार’ से पुरस्कृत। उ.प्र. हिंदी संस्थान द्वारा ‘सौहार्द सम्मान’ से सम्मानित।