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लोगो के पूर्व में दिए हुए प्यार, स्नेह और ऊर्जा को आधार बनाकर एक बार फिर कुछ रचनाएँ आपके हवाले कर रहा हूँ। रचनाएँ अच्छी बनी हैं या बुरी, ये तो पाठक ही तय करेंगे, मगर इतना जरूर कह सकता हूँ कि इन्हें लिखने, सुधारने और सँवारने में मैंने अपना सबकुछ झोंक दिया है।
अगर विषय हल्का-फुल्का है तो इस बात का तनाव नहीं लिया कि कैसे इस लेख से मानवजाति को कोई बड़ा संदेश दिया जाए और विषय गंभीर है, तो सहज ही वहाँ हास्य के बजाय व्यंग्य प्रधान हो गया। लेकिन इतनी कोशिश जरूर रही कि गंभीर व्यंग्य रचनाएँ भी विट से अछूती न रहें वरना वे बोझिल हो जाती हैं।
मेरा मानना है कि अच्छा हास्य-व्यंग्य कभी उपदेश का चोला पहनकर नहीं आता। वो आपको हमेशा सही-गलत पर ज्ञा न नहीं देता। वो हरदम गिरते नैतिक मूल्यों की बात कर मनहूस शक्ल बनाए नहीं बैठता। वो एक हँसमुख दोस्त की तरह आता है। खूब हँसी-मजाक करता है। माहौल को हल्का करता है और जाते-जाते कुछ ऐसा कह जाता है कि आप रुककर उस पर विचार करने लगें।
यह पहाड़ों की धार्मिक यात्रा की तरह है, जो आपको घूमने का आनंद तो देती ही है, साथ ही यह गर्व भी दे जाती है कि आपकी यात्रा का एक पवित्र मकसद है। ऐसी यात्रा जहाँ पवित्रता अंतिम गंतव्य है, लेकिन सफर मजे से भरा हुआ है।—नीरज बधवार
आपराधिक रेकॉर्ड—कॉलेज खत्म होने तक नीरज बधवार ने जिंदगी में सिर्फ 3 ही काम किए-टी.वी. देखना, क्रिकेट खेलना और देर तक सोना। ग्रेजुएट होते ही उन्हें समझ आ गया कि क्रिकेटर मैं बन नहीं सकता, सोने में कॅरिअर बनाया नहीं जा सकता, बचा टी.वी.; जो देखा तो बहुत था मगर उसमें दिखने की तमन्ना बाकी थी। यही तमन्ना उन्हें दिल्ली घसीट लाई।
जर्नलिज्म का कोर्स करने के बाद छुट-पुट नौकरियों में शोषण करवा वो टी.वी. में एंकर हो गए। एंकर बन परदे पर दिखने का शौक पूरा किया तो लिखने का शौक चढ़ गया। हिम्मत जुटा एक रचना अखबार में भेजी। उनके सौभाग्य और पाठकों के दुर्भाग्य से उसे छाप दिया गया। इसके बाद दुस्साहस बढ़ा तो उन्होंने कई अखबारों में रायता फैलाना शुरू कर दिया।
सिर्फ अखबार और टी.वी. में लोगों को परेशान कर दिल नहीं भरा तो ये सोशल मीडिया की ओर कूच कर गए। अपने वन लाइनर्स के माध्यम से लाखों लोगों को ट्विटर और फेसबुक पर अपने झाँसे में ले चुके हैं। नीरज पर वनलाइनर विधा का जन्मदाता होने का इल्जाम भी लगता है और ऐसा इल्जाम लगाने वालों को वो अलग से पेमेंट भी करते हैं।
अपना ही परिचय थर्ड पर्सन में लिखने की धृष्टता करने वाले नीरज वर्तमान में टाइम्स ऑफ इंडिया समूह में क्रिएटिव एडिटर के पद पर कार्यरत हैं, जहाँ ‘Fake it India’ कार्यक्रम के जरिए लोगों को बुरा व्यंग्य परोसने का काम बखूबी अंजाम दे रहे हैं। जनता का भी टेस्ट इतना खराब है कि अब तक 20 करोड़ लोग इन विडियोज को देख अपनी आँखें फुड़वा चुके हैं।
इनकी पहली किताब ‘हम सब Fake हैं' को भारत में आई ‘इंटरनेट क्रांति’ का श्रेय दिया जाता है। उसे पढ़ते ही जनता का लिखने-पढ़ने से भरोसा उठ गया और वो इंटरनेट की ओर कूच कर गई। नीरज की यह दूसरी पुस्तक जुल्म की इस लंबी दास्तान का एक और किस्सा है और इस उम्मीद में आपके हाथों में है कि इसका हिस्सा बनकर आप इस किस्से को सुनाने लायक बना पाएँगे।
बाकी, पुस्तक पर बरबाद हुए पैसों के लिए लानत-मलानत करनी हो, तो लेखक को सीधे 9958506724 पर कॉल कर सकते हैं। कॉल कर पैसे बर्बाद न करना चाहें, तो मिस कॉल दे दें, लेखक इतना खाली है कि खुद पलटकर आपको फोन कर लेगा।