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झारखंड के उलझे अनसुलझे इतने छोर हैं कि किसी एक सूत्र के सहारे उसके सारे अर्थों अभिप्रायों को समेट लेना असंभव है। यहाँ की संस्कृति, समाज, विकास, विस्थापन और दमन- शोषण के बारे में कम नहीं लिखा गया है, मगर जितना भी लिखा गया है, उसका बहुलांश आदिवासी हितों को एकमात्र विचारणीय विषय केंद्र मानकर लिखा गया, जो निश्चय ही महत्त्वपूर्ण है। परंपरागत रूप से बाहरी दुनिया के सामने यही उसकी पहचान है। लेकिन इस सत्य के समानांतर कई और सत्य भी हैं, जिनके कई सिरे अब तक अँधेरे में गुम हैं। आवाजाही के लिहाज से खुला क्षेत्र होने के कारण पिछले पाँच सौ वर्षों में झारखंड की समाज-संरचना इकहरी नहीं रह गई है। इस दृष्टि से आदिवासी झारखंड की अवधारणा सामयिक सच नहीं है। सदान और गैर-आदिवासी समूह आबादी के लिहाज से यहाँ तीन-चौथाई जगह घेरते हैं।
'बदलाव के तिराहे पर झारखंड ' पुस्तक लगभग दो हजार साल पुरानी परंपरा की क्षैतिज परिक्रमा करने के बावजूद दिनांकित इतिहास की एकेडमिक किताब नहीं है। इस समूचे इतिहास - चक्र को अगर रुझानों- परिणामों की दृष्टि से सूत्रबद्ध करना हो तो समय के विविध पड़ावों पर बाहरी- भीतरी उन शक्तियों का संश्लेषणपरक विवेचन जरूरी है, जिन्होंने देशज समाज जीवन का साँचा गढ़ने- बदलने में क्रमबद्ध ऊर्जा खपाई है। इस दृष्टि से अपने ढंग की यह अकेली किताब है ।