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अमित इधर कविता के इलाके में कदम रखनेवाले प्रतिभावान युवा हैं। ‘बाहर मैं...मैं अंदर...’ उनका पहला संग्रह है। दो हिस्से हैं इसके, जिसमें ‘मैं अंदर’ की शीर्षकविहीन कविताएँ हैं, वह कवि का आत्म है, उसका व्यक्तित्व ही उन कविताओं का शीर्षक हो सकता था। इस ‘अंदर’ में छटपटाहट बाहर के दबावों की भी है। इस अंदर में वह खुद अपना ईश्वर है। हमारे भीतर के कई हमों को व्यक्त करती ये कविताएँ सामाजिक बयानों से उतनी दूर भी नहीं, जितना कवि ने अपने आमुख में बताया है। वहाँ उसे हिचकियाँ आती हैं, वहाँ फूटती बिवाइयों को बिना किसी दया के आग्रह के वह न सिर्फ एक नमकीन निराशा के साथ रहने देना चाहता है, बल्कि चाकू लेकर छीलने भी बैठ जाता है।
‘बाहर’ की कविता में अमरीका की दादागिरी के नाम एक क्षोभ पत्र है। कश्मीर से एक हालिया मुलाकात का ब्योरा है, जिसमें कश्मीरियों की गरीबी, झील की झल्लाहट और उस सुंदर प्रकृति की बेबसी के कई दुःखद बिंब हैं—यहाँ कश्मीर एक बेवा है, जो पानी के पन्ने पर तारीखें काढ़ा करती है और एक नाव वाला पूछता है कि अपने बच्चों को खाना किसे अच्छा लगता है...संग्रह में ऐसी और कितनी ही कविताएँ हैं, जो बताती हैं कि कवि जब बाहर होता है तो उसका तआल्लुक वैचारिक संघर्ष के किस संसार से है—पाठक स्वयं उनमें
प्रवेश करेंगे।
अमित की कविताओं में दर्ज अनुभव और विचार भरोसा दिलाते हैं कि यह युवा लंबे सफर पर निकला है। अमित की कविता कहीं से भी समतल में चलने की हामी नहीं लगती, वह भरपूर जोखिम उठाती है।
—शिरीष कुमार मौर्य
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अनुक्रम
आमुख —Pgs. 5
मैं अंदर (एक बूढ़ा बच्चा) —Pgs. 9
बाहर मैं (दूसरा-तीसरा-चौथा पन्ना किताब का...अविश्वास का) —Pgs. 51
• रासायनिक अभिक्रिया —Pgs. 53
• सुहागरात के मौके पर एक औपचारिक बातचीत —Pgs. 54
• कोशिशें —Pgs. 57
• बेचैन बात (मुक्तिबोध की कविता ‘अँधेरे में’ को पढ़ते हुए) —Pgs. 58
• एलजेबरा (छत पर पढ़ाई) —Pgs. 61
• मैं बिकाऊ जरूर हूँ, बस बिकने लायक नहीं —Pgs. 62
• डेट ऑफ बर्थ —Pgs. 64
• वेंटीलेटर (ऋषभ तुम्हारी याद में) —Pgs. 65
• चली तो नहीं गई? (चौकियाँ मंदिर की लाइन में लगकर) —Pgs. 67
• कहानी नहीं नियति है —Pgs. 68
• ऐसा हूँ —Pgs. 71
• आज सूरज पश्चिम से उगा था —Pgs. 72
• वर्चुअल रिअलिटी —Pgs. 76
• मुझे इंतजार है (मैं मोनालिसा) —Pgs. 77
• मत घूरो मुझे —Pgs. 80
• मृत्यु (‘सीजर’ के पहले झटके पर) —Pgs. 81
• संक्रमण-काल —Pgs. 83
• कवि मैं —Pgs. 84
• खाली पेट —Pgs. 85
• बहिष्कृत (उफ! ये नौकरी) —Pgs. 86
• सपने —Pgs. 88
• जुलूस (कक्षा बारह को समर्पित) —Pgs. 89
• तुम मुझे कवि नहीं लगते —Pgs. 95
• महाकुंभ (हजारों-हजार साल पुराना हिंदू धर्म खतरे में है। बचाओ!) —Pgs. 96
• भाषा पर बपौती —Pgs. 103
• देखा सोचा —Pgs. 104
• खामोश! सब खामोश! —Pgs. 105
• मेरी एक प्रेम कविता (क्या करें हमारे प्यार पर तो बाजार छा गया) —Pgs. 106
• मैं रिक्तियों से बड़ा हो रहा हूँ —Pgs. 108
• कालाढूँगी (शिरीष कुमार मौर्य की कविता ‘रात में शहर’ को पढ़ते हुए) —Pgs. 109
• कवि-सा —Pgs. 112
• मुल्तवी (महाकुंभ के दौरान एक स्नान के मौके पर) —Pgs. 113
• विश्वास —Pgs. 115
• विदेश नीति (अमरीका की दादागिरी के नाम एक क्षोभ-पत्र) —Pgs. 116
• कैपीटलिज्म (उन्नीस सौ इक्यानबे) —Pgs. 119
• बाजार —Pgs. 120
• ईश्वर जानता है —Pgs. 122
• मैं बहुत उदास हूँ —Pgs. 123
• डल (कश्मीर से एक मुलाकात) —Pgs. 129
• मुझे न्यूरो सर्जन बनना है —Pgs. 134
• एक...है —Pgs. 137
अमित श्रीवास्तव
जन्म एवं शिक्षा जौनपुर, उत्तर प्रदेश में। कुछ समय विदेश व्यापार निदेशालय, भारत सरकार में हिंदी अनुवादक का कार्य करने के बाद अब उत्तराखंड पुलिस सेवा में अपर पुलिस अधीक्षक।
‘भारत में भूमंडलीकरण की अवधारणा एवं समकालीन हिंदी कविता पर उसका प्रभाव’ विषय पर कुमाऊँ विश्वविद्यालय से डॉक्टरेट।
विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं/ऑनलाइन पत्रिकाओं में कविताएँ एवं लेख प्रकाशित।
‘पहला दखल’ (संस्मरण) वर्ष 2015 में प्रकाशित।
वर्तमान पता : टाइप-4, ई-4, राजकीय मेडिकल कॉलेज, हल्द्वानी, जिला-नैनीताल।
फोन : 07830939831
इ मेल : tarav_s@yahoo.co.in, taravamitsrivastava@gmail.com
ब्लॉग : http://taravtaal.blogspot.com