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जसवंत ने बाएँ हाथ से बलवंत के दाहिने हाथ की कलाई थाम ली और कहा, ‘‘अगर करार करो कि रास्ते में तुम मुझसे भागने की कोशिश नहीं करोगे, तो मैं तुम्हें एक सवारी दूँगा।’’
बलवंत, ‘‘मैं तुमसे सवारी नहीं माँगता हूँ। अगर तुम मुझ पर ऐसे ही दयालु हुए हो तो कुछ दूर तक मेरे साथ चलो और फिर मुझे छोड़कर घर चले आओ। मैं अपना बंदोबस्त कर लूँगा।’’
जसवंत, ‘‘नहीं, सो नहीं हो सकता। तुम इस मकान में कैद हो और मेरे साथ भी कैदी की तरह चलोगे। तुम करार करो कि जब तक तुम मेरे साथ रहोगे, इस कैद से छूटने की कोशिश नहीं करोगे, तो मैं तुम्हारे लिए सवारी का बंदोबस्त कर दूँ।’’
बलवंत सिंह कुछ देर तक चुप रहे। फिर बोले, ‘‘ठीक है, अगर तुम यह करार करो और शपथ खाओ कि मेरे साथ किसी तरह का बुरा सलूक नहीं होगा, तो मैं भी शपथ करके कहूँगा कि मैं भागने की कोशिश नहीं करूँगा।’’
(‘बलवंत भूमिहार’ से)
शाम को जब मैं टहलने को निकलना चाहता था तब श्रीमतीजी ने मेरे सामने आकर कहा, ‘‘टहलने चले हैं?’’
उसको असल मतलब मैं बखूबी जानता था, जवाब दिया, ‘‘नहीं, जरा भवानी सहाय के यहाँ जाना है।’’
वह, ‘‘तो जरा उधर ही से कपड़ा भी लेते आइएगा, पहनने के लिए कुछ नहीं है, कैसे क्या करूँगी।’’ यह आवाज उसके कंठ से नहीं निकली, पेट से—मुँह हो के नहीं, नाक हो के। मुझे बखूबी खयाल नहीं है कि आँख से आँसू भी गिरा था कि नहीं। उसने जो कहा कि ‘पहनने के लिए कुछ नहीं है’, इससे आप लोग यह मत समझिए कि सचमुच उसको पहनने के लायक कोई अच्छा कपड़ा नहीं था। मैं अपनी धोती मोल लेता हूँ उसकी साड़ी के कपडे़ के साथ...मेरे कपडे़ का एक ही बक्स सो भी आधा खाली पड़ा हुआ है; पर उसके कपडे़ के दो बक्स भरपूर भरे हैं।
(‘घराऊ घटना’ से)