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"बनूँ मैं रुक्मणी' काव्य-संग्रह में प्रेम के सभी रूपों को अभिव्यक्त किया गया है। ऐसा प्रेम, जिसमें कर्तव्य-बोध के साथ अधिकारों की बात भी की गई है। प्रेम करना, उसकी अनुभूति को जीना, उसकी गहराई को नापना, उसकी ऊँचाई को छूना, उसकी सच्चाई को जानना, उसके मौन की गूंज को सुनना, साथ ही जीवन भर हर कदम पर बदलते हुए उसके स्वरूप को समझना - यह सब अंतर्मन में कहीं निहित होता है, जिसे शब्दों में ढालकर गीत, गजल और मुक्तकों के फ्रेम में कसकर यहाँ प्रस्तुत किया गया है।
आप सोच रहे होंगे, यह बहुत सामान्य प्रक्रिया है, सभी काव्य-मनीषी यही करते हैं, परंतु यहाँ कुछ विशेष है। यहाँ अनुभूति को नहीं, बल्कि अनुभूति से उत्पन्न स्वभाव को कविताओं के माध्यम से दर्शाने का प्रयास है। रिश्तों में निहित प्रेम के बाहरी स्वरूप - झगड़ा, नोक-झोंक, कर्तव्य, अधिकार, सुख-दुःख के कारण-सबकुछ प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। प्रेम ही है, जो प्रकृति, देश, समाज, परिवार, रिश्ते तथा व्यक्ति के स्वभाव और भाव के बीच सेतु का कार्य करता है। बस यही इस पुस्तक का आधार-बिंदु है।"