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बूढ़ा अपने अतीत में खोई हुई वर्तमान से कट गई थीं । न उनका अतीत वर्तमान में अँट रहा था और न वर्तमान उन्हें छू पा रहा था । उनके सामने जो यथार्थ था, उसे वे अपनी यातना का नरक समझ रही थीं । जो बीते हुए दिन थे, वे झिलमिल स्वप्न- लोक की तरह सिर्फ उन्हें भरमा रहे थे । उनके मन में न अतीत की सच्चाई थी और न वर्तमान की । दोनों उलट-पुलट गए थे ।
' बूढ़ा ' शब्द तिरष्कार से लबालब भरा था । जो काम करने में असमर्थ हो, पराश्रित हो, धन रहते हुए भी उसके भोग की शक्ति न हो, किसी समाज में बैठने के लायक भी न हो, जिसे लड़के तक धकेलकर बाहर कर दें-वह है बूढ़ा ।
एक ओर पति की श्रद्धा की गंगा है, दूसरी ओर संतानों के स्नेह की यमुना । दो पाटों के बीच जिंदगी बालू हो गई है । उस पर जितना चल सकती हूँ चलूँगी । हार नहीं मानूँगी ।
बातो तिल-तिल जलकर बुझने के पहले धधा रही थी । रोशनी भी चटक थी और धुआँ भी तेज था । बुझते हुए दीये की रोशनी में वे घर-परिवार को असीसती थीं और धुएँ की कलौंछ में जलती- भुनती बातें कह जाती थीं । बुझते हुए दीये के कंपन में नीचे आशीर्वाद की रोशनी थी और ऊपर कटूक्तियों की कालिख थी ।
-इसी उपन्यास से
कविता से साहित्यिक जीवन की शुरुआत । नई कविता के कवि के रूप में प्रसिद्धि मिली । सामान्य जनता का संघर्ष, विसंगतियों पर चोट, सौंदर्य की चेतना और प्रेम की गहराई कविताओं का आधार है । अब तक चार काव्य संकलन प्रकाशित हो चुके हैं । मध्यकाल, नई कविता और नवगीत की समीक्षा में भी चर्चित । सौंदर्य और सौंदर्यानुभूति, मध्यकाल के कवि, अष्टछाप के कवियों की सौंदर्यानुभूति और नवगीत समीक्षा की पुस्तकें हैं ।
ललित-निबंधकार के रूप में प्रतिष्ठित । लोक-संवेदना, लोक-विश्वास, मिथकों की नई व्याख्या और जिजीविषा की हिलोरों से भाषा की नई बुनावटवाले ये निबंध अब तक हिंदी के सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में छप चुके हैं । व्यक्ति के संबंधों और उसके भाव- अभावों को लेकर कुछ कहानियाँ लिखीं । दर्जनों संपादित ग्रंथों में दो विशिष्ट संपादन- ' वृंदावनलाल वर्मा समग्र ' ( सात खंड), ' लक्ष्मीनारायण मिश्र रचनावली ' ( छह खंड); ' बीच की रेत ' प्रथम उपन्यास है । उ.प्र. हिंदी संस्थान ने ' विद्याभूषण उपाधि ', हिंदी साहित्य सम्मेलन प्रयाग ने ' साहित्य महोपाध्याय ' तथा भारतेंदु अकादमी ने ' भारतेंदु मनीषा अलंकरण ' से सम्मानित किया है ।