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शहीद-ए-आजम भगत सिंह (1907-1931) एक ऐसे समय जी रहे थे, जब भारत का स्वतंत्रता संग्राम जोर पकड़ने लगा था और जब महात्मा गांधी का अहिंसात्मक, आंशिक स्वतंत्रता का शांत विरोध लोगों के धैर्य की परीक्षा ले रहा था। हथियार उठाने की भगत सिंह की अपील युवाओं को प्रेरित कर रही थी और उनके साथ ही हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन की सैन्य शाखा के कॉमरेड मिलकर सुखदेव और राजगुरु की ललकार तथा दिलेरी उनमें जोश भर रही थी। ‘इनकलाब जिंदाबाद!’ का जो नारा उन्होंने दिया था, वह स्वतंत्रता की लड़ाई का जयघोष बन गया।
लाहौर षड्यंत्र केस में भगत सिंह के शामिल होने को लेकर मुकदमे का ढोंग चला और जब तेईस वर्ष की उम्र में, अंग्रेजों ने भगत सिंह को फाँसी दे दी, तब भारतीयों ने उनकी शहादत को उनकी जवानी, उनकी वीरता, और निश्चित मृत्यु के सामने अदम्य साहस के लिए पूजना शुरू कर दिया। इसके कई वर्षों बाद, 1947 में स्वतंत्रता मिलने पर, जेल में उनके लिखे लेख सामने आए। आज, इन लेखों के कारण ही भगत सिंह ऐसे कई क्रांतिकारियों से अलग दिखते हैं, जिन्होंने अपना जीवन भारत के लिए बलिदान कर दिया।
जानकारी से भरपूर और दिलचस्प यह पुस्तक भारत के महानतम स्वतंत्रता सेनानियों में से एक और अनूठी बौद्धिक ईमानदारी दिखानेवाले व्यक्ति का रोचक वर्णन है।
वरिष्ठ पत्रकार और पूर्व सांसद कुलदीप नैयर भारत के जाने-माने और व्यापक रूप से सिंडिकेटेड पत्रकार हैं। उनका जन्म 1923 में सियालकोट में हुआ और अपने परिवार के साथ बँटवारे के समय दिल्ली आने से पहले उन्होंने लाहौर यूनिवर्सिटी में शिक्षा प्राप्त की। उन्होंने अपने कॅरियर की शुरुआत उर्दू अखबार ‘अंजाम’ के साथ की और कुछ समय तक अमेरिका में रहने के बाद लाल बहादुर शास्त्री तथा गोविंद बल्लभ पंत के सूचना अधिकारी भी रहे।
नैयर आगे चलकर ‘द स्टेट्समैन’ के स्थानीय संपादक और भारतीय समाचार एजेंसी यू.एन.आई. के प्रबंध संपादक भी रहे। वे पच्चीस वर्षों तक ‘द टाइम्स’ के संवाददाता रहे और बाद में वी.पी. सिंह की सरकार के समय इंग्लैंड में भारतीय उच्चायुक्त भी रहे। प्रेस की आजादी के लिए लड़ते हुए इमरजेंसी के दौरान उन्हें कैद कर लिया गया। भारत और पाकिस्तान के बीच बेहतर संबंधों और मानवाधिकारों पर उनकी भूमिका ने अनेक देशों में उन्हें सम्मान और प्यार दिलाया। एक दर्जन से भी अधिक पुस्तकों के लेखक नैयर के साप्ताहिक स्तंभ पूरे दक्षिण एशिया में पढ़े जाते हैं।