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"राष्ट्र की चिति और राष्ट्रधर्म
सत्य तो यह है कि यह सुनिश्चित करना असंभव है कि भारत के सुदीर्घ राष्ट्रजीवन के पुण्य प्रवाह में राष्ट्रधर्म की अवधारणा कब अंकुरित हो गई।
शायद तब, जब पर्वतराज हिमालय के उत्तुंग शिखरों पर स्थित गहन गुफा में समाधिस्थ आदियोगी ने ॐ का उद्घोष कर आँख खोलते ही स्वयं से प्रश्न किया-कोऽहं ? तथा तुरंत स्वयं ही उत्तर भी दे दिया- सोऽहं !
या तब, जब महासागर की अपार जलराशि पर तैरती लघुकाय मछली की कातर पुकार सुनकर करुणा-विगलित वैवस्वत मनु ने उसे अपने कमंडल की रक्षा-परिधि में लेकर जीवमात्र के जीने के अधिकार को ही स्वीकृति नहीं दी, अपितु निर्बल की रक्षा करना मनुष्यमात्र का दायित्व भी निर्धारित कर दिया।
अथवा तब, जब ऋषिमुख से देववाणी फूट पड़ी-'एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति', अर्थात् सत्य एक है, अविभाज्य है, सार्वदेशिक है, सार्वकालिक है। विद्वान् लोग अपनी-अपनी मति अनुसार उसकी व्याख्या करते हैं। ऐसा करना उनका अधिकार भी है।"