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भारत की सनातन-सांस्कृतिक परंपरा समावेशी, करुणाप्रधान एवं समतामूलक रही है। समय के झंझावातों, विदेशी आक्रांताओं के प्रहारों और तकनीक की चकाचौंध ने इसके बाह्य स्वरूप को प्रभावित अवश्य किया है लेकिन मूल रूप में समस्त चराचर जगत् को स्वयं का रूप मानने की भारतीय-दृष्टि आज भी लोकजीवन में अपना स्थान बनाए हुए है। आचार्य रजनीश शुक्ल की यह पुस्तक भारतीय समाज, इतिहास, संस्कृति, राष्ट्र-निर्माण, आत्मनिर्भरता, पत्रकारिता आदि विषयों को सारगर्भित तरीके से प्रस्तुत करती है और ऐसा करते हुए वह गौतमबुद्ध, कबीर, तुलसीदास, गांधी, विनोबा, आंबेडकर, वीर सावरकर और पं. दीनदयाल उपाध्याय जैसे मनीषियों को उद्धृत करते हैं, जिससे उनके विचार एक सनातन ज्ञानपरंपरा के वाहक के रूप में दिखलाई देते हैं।
—रमेश पोखरियाल ‘निशंक’
(केंद्रीय शिक्षा मंत्री, भारत सरकार )
आचार्य रजनीश कुमार शुक्ल ने इस कृति में भारतीय ज्ञानपरंपरा को उसके वर्तमान व्यापक संदर्भ में देखा है। वे अपनी परिपुष्ट दार्शनिक पृष्ठभूमि के कारण प्राचीन भारतीय चिंतन के विविध आयामों पर अधिकार रखते हैं तथा समकालीन पश्चिमी विचार और दर्शन के साथ-साथ आधुनिक भारतीय दर्शन एवं चिंतन पर भी उनकी वैसी ही पकड़ है। यह पुस्तक एक नई बहस को आरंभ करेगी।
—प्रो. कमलेशदत्त त्रिपाठी
कुलाधिपति, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा
पिछले दो दशकों में पूरे विश्व की सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक संरचना में व्यापक बदलाव आया है। इस परिदृश्य में भारत एक बार फिर से विश्वगुरु बन सकता है—इसमें कोई संदेह नहीं है। हालाँकि कुछ लोग असहमत हो सकते हैं। राष्ट्रीय चिंतक यह मानते हैं कि भारत की सांस्कृतिक विशिष्टता में विश्वगुरु बनने के बीज-तत्त्व विद्यमान हैं। यहाँ का जन अपनी पहचान से भारत को विशिष्ट बनाए हुए है। भारतीय चिंतन और भारतीय दृष्टि मनुष्य को एक संपोष्य जीवन प्रणाली दे सकती है और यही वह कारण है जिससे भारत को विश्वगुरु बनना ही है, इसे कोई रोक नहीं सकता है। इस लघु संग्रह में इसकी पड़ताल करने की कोशिश की गई है। इसमें भारतीय ज्ञानपरंपरा के सनातन प्रवाह की विविध धाराओं के रूप में समझने की कोशिश की गई है। इस धारा को प्रवाहित करने में योगदान करनेवाले कुछ विचारकों की विचार-सरणि का निदर्शन करने का यह एक विनम्र प्रयास भी है। विश्वास है कि अनादि से अनंत तक विस्तृत भारत की ज्ञानयात्रा को समझने में यह लघुतम प्रयास पाठकों को सार्थक लगेगा।
दर्शन जगत् में अपनी विशिष्ट लेखन-संवाद शैली, इतिहासबोध तथा सांस्कृतिक मूल्यों के लिए प्रतिबद्ध आचार्य रजनीश कुमार शुक्ल वर्तमान में महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति हैं। 25 नवंबर, 1966 को भगवान् बुद्ध की निर्वाण स्थली कुशीनगर (उत्तर प्रदेश) में जनमे आचार्य शुक्ल का अध्ययन महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ व काशी हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी से हुआ। सन् 1991 से संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी में तुलनात्मक धर्म एवं दर्शन विभाग के आचार्य हैं।
आचार्य शुक्ल की भारतीय धर्म-दर्शन में गहरी रुचि है। वह संस्कृति-दर्शन, भाषा-दर्शन, कला-दर्शन, तत्त्व-दर्शन, भारती-विद्या एवं साभ्यतिक-विमर्श के परिपृच्छित अध्येता हैं। इनकी वाणी में भारतीय-संस्कृति एवं जीवन-मूल्यों के दर्शन होते हैं। जहाँ एक ओर वह प्रखर राष्ट्रवादी हैं तो वहीं दूसरी ओर सामाजिक समरसता के प्रबल पक्षधर भी।
सौंदर्यशास्त्र, आलोचना, ललित निबंध आदि विषयों के पारखी आचार्य शुक्ल हिंदी, अंग्रेजी एवं संस्कृत भाषा में निष्णात हैं। इन्होंने दर्शनशास्त्र सहित मानविकी एवं सामाजिक विज्ञान विषयक कई विधाओं पर प्रभूत लेखन किया है। इन्होंने लगभग दस ग्रंथों का प्रणयन किया है। इनके सौ से अधिक शोध-पत्र राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं।
आचार्य शुक्ल अखिल भारतीय दर्शन परिषद् द्वारा प्रकाशित शोध-पत्रिका ‘दार्शनिक त्रैमासिक’ के प्रधान संपादक रहे हैं। साथ ही, जर्नल ऑफ इंडियन काउंसिल ऑफ फिलासॉफिकल रिसर्च (JICPR) और भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद् की पत्रिका ‘हिस्टॉरिकल रिव्यू’ के कार्यकारी संपादक भी रह चुके हैं। इनके लेख प्रतिष्ठित राष्ट्रीय समाचार-पत्रों में प्रकाशित होते हैं। अकादमिक गतिविधियों से इनकी सतत् सक्रियता रहती है।
वर्तमान में वह देश की विभिन्न संस्थाओं में महत्त्वपूर्ण पदों पर शोभायमान हैं—भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद् (ICCR), राजा राममोहन रॉय लाइब्रेरी फाउंडेशन, राष्ट्रीय पुस्तक न्यास तथा राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद् (NCERT) के सदस्य हैं, अखिल भारतीय दर्शन परिषद् के कार्यकारी अध्यक्ष भी हैं। साथ ही वे जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, हिमाचल प्रदेश केंद्रीय विश्वविद्यालय और गुजरात केंद्रीय विश्वविद्यालय की कार्यपरिषद् के सदस्य हैं। प्रो. शुक्ल भारतीय दर्शन अनुसंधान परिषद् (ICPR) तथा भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद् (ICHR) के सदस्य सचिव रहे हैं।
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