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भाषा अभिव्यक्ति का आयुध है, जिसके बिना हम न तो सार्थक बातचीत कर सकते हैं, न लिख-पढ़ सकते हैं। हिंदी-हिंदुस्तानी जिसकी नींव कभी महात्मा गांधी ने रखी, जिसे देश भर में प्रचारित-प्रसारित किया, स्वराज पाने का अचूक हथियार बनाया, वह भारत की राजभाषा बनने के बावजूद अपने हक से वंचित रही है। अरसे तक औपनिवेशिक गुलामी ने हमारे मनोविज्ञान को ऐसी भाषाई ग्र्रंथियों से भर दिया है, जिसमें हमने आजादी के बाद धीरे-धीरे अंग्रेजियत ओढ़ ली और भारतीय भाषाओं समेत हिंदी-हिंदुस्तानी से एक दूरी बनानी शुरू कर दी।
किंतु जब-जब हम में राष्ट्रप्रेम जागता है, हम स्वराज्य, हिंदी-हिंदुस्तानी व भारतीय संस्कृति के पन्ने उलटने लगते हैं। कहना न होगा कि भारतीय भाषाओं के बीच पुल बनाने वाली हिंदी आज देश में ही नहीं, पूरे विश्व में किसी-न-किसी रूप में बोली व समझी जाती है। एक बड़ा भौगोलिक क्षेत्रफल हिंदीभाषियों का है, जो देश-देशांतर में फैला है। प्रवासी भारतवंशियों का समुदाय भी हिंदी का हितैषी रहा है तथा इस समुदाय ने विभिन्न देशों में न केवल भाषा का वाचिक स्वरूप बचाकर रखा है, भारतीय संस्कृति के ताने-बाने को भी सुरक्षित व संवर्धित किया है।
‘भाषा की खादी’ जहाँ हिंदी-हिंदुस्तानी के सहज स्वरूप की बात करती है, वहीं संस्कृति के उन धागों के बारे में भी बतियाती है, जिनसे हमारे पर्वों, त्योहारों, बसंत, फागुन व प्रणय के मौसमी अहसासों के ताने-बाने जुड़े हैं। नए बौर की गंध से मह-मह करता फागुन कभी-कभी शब्दों की पालकी पर आरूढ़ होकर आता है। ‘भाषा की खादी’ में यह मह-मह और मंद-मंद बहती पुरवैया के झकोरों की गूँज सुनाई देगी, इसमें संदेह नहीं।
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निबंध-क्रम
प्रस्तावन —Pgs. 7
भाषा की खादी
भाषा की खादी —Pgs. 13
हिंदी : वित्त से चित्त तक —Pgs. 27
हिंदी और वेब माध्यम —Pgs. 36
हिंदी : आँगन के पार द्वार —Pgs. 48
हिंदी की कठिनाई, भाषा की नहीं —Pgs. 80
हिंदी, प्रचार और प्रकाशन —Pgs. 93
गांधी, हिंदी और हिंदुस्तानी —Pgs. 107
हिंदी, हिंदुस्तानी और भारतीय संस्कृति —Pgs. 112
राष्ट्रगीत, राष्ट्रभाषा और राष्ट्रवाद —Pgs. 125
पराई मिट्टी में अपनी भाषा की क्यारी —Pgs. 133
मिलना एक शब्द-सहचर से —Pgs. 140
संस्कृति के धागे
अँधेरे में इक दीया तो बालें —Pgs. 148
कहाँ हैं रोशनी की फाइलें? —Pgs. 156
फागुन का रथ कोई रोके! —Pgs. 162
मेरे युवा आम में नया बौर आया है —Pgs. 175
तीन लोक से न्यारी काशी —Pgs. 186
ओम निश्चल
हिंदी के सुपरिचित कवि, आलोचक एवं भाषाविद्।
जन्म : 15 दिसंबर, 1958 को उ.प्र. के प्रतापगढ़ जिले के हर्षपुर गाँव में।
शिक्षा : संस्कृत व हिंदी में स्नातकोत्तर उपाधियाँ, पी-एच.डी. व पत्रकारिता में स्नातकोत्तर डिप्लोमा।
रचना-संसार : शब्द सक्रिय हैं (कविता-संग्रह), खुली हथेली और तुलसीगंध (संस्मरण) व कविता का स्थापत्य, कविता की अष्टाध्यायी एवं शब्दों से गपशप सहित समीक्षा व आलोचना की कई पुस्तकें। अज्ञेय आलोचना संचयन, अधुनांतिक बांग्ला कविता, द्वारिकाप्रसाद माहेश्वरी रचनावली, कुँवर नारायण पर केंद्रित ‘अन्वय’ एवं ‘अन्विति’ सहित कई ख्यात कवियों की कृतियों का संपादन। तत्सम् शब्दकोश के सहयोगी संपादक एवं बैंकिंग वाङ्मय सीरीज (पाँच खंड) के रचयिता।
सम्मान : कविता के लिए हिंदी अकादमी, दिल्ली एवं आलोचना के लिए उ.प्र. हिंदी संस्थान से ‘आचार्य रामचंद्र शुक्ल आलोचना पुरस्कार’ से विभूषित।
दक्षिण अफ्रीका एवं मॉरीशस की यात्राएँ व वहाँ के कई नगरों में काव्यपाठ एवं व्याख्यान।
संपर्क : जी-1/506ए, उत्तम नगर, नई दिल्ली-110059
इ-मेल : omnishchal@gmail.com