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भारत के संविधान के शिल्पकार डॉ. भीमराव आंबेडकर ने समाज में व्याप्त जाति-भेद, ऊँच-नीच एवं अस्पृश्यता के विरुद्ध अथक संघर्ष किया। सर्वथा अतार्किक मनुष्य विरोधी इन घृणित मान्यताओं, रूढ़ियों के कारण विद्यार्थी-काल से ही डॉ. आंबेडकर को पग-पग पर अपमान, उपेक्षा और तिरस्कार का सामना करना पड़ा। उन्होंने देश के दलितों, वंचितों, शोषितों, मजदूरों और स्त्रियों को समाज में बराबरी का दर्जा, सम्मान एवं अधिकार दिलाने के लिए बहुविध प्रयत्न किए। इसके लिए पत्रकारिता को एक कारगर औजार के रूप में बखूबी इस्तेमाल किया। उन्होंने ‘मूक नायक’ और ‘बहिष्कृत भारत’ पत्रों के माध्यम से समतामूलक समाज की स्थापना के लिए सामाजिक क्रांति का उद्घोष किया। उनकी दृढ़ मान्यता थी कि जाति-विहीन समाज हिंदुओं के व्यापक हित में है और इसी पर समृद्ध, आत्मनिर्भर एवं पूर्ण विकसित राष्ट्र का निर्माण अवलंबित है। डॉ. आंबेडकर अपनी तेजस्वी पत्रकारिता के माध्यम से जहाँ एक ओर दलित एवं शोषित वर्ग में साहस एवं स्वाभिमान का संचार कर रहे थे, ‘पढ़ो, संगठित हो जाओ और संघर्ष करो’ का मंत्र फूँक रहे थे तो वहीं दूसरी ओर बहुत ही तार्किक ढंग से सवर्ण समाज को ‘समता’ के महत्त्व को स्वीकारने की समझाइश भी दे रहे थे।
शीर्षस्थ विधिवेत्ता, प्रखर चिंतक, क्रांतिकारी समाज-सुधारक डॉ. आंबेडकर के ऐतिहासिक अवदान उनके पत्रकारीय कृतित्व का दिग्दर्शन करानेवाली एक अत्यंत पठनीय एवं जानकारीपरक पुस्तक।
हिंदी और मराठी भाषा पर समान अधिकार रखने वाले डॉ. सूर्यनारायण रणसुभे की हिंदी समीक्षा की दस पुस्तकें, मराठी से हिंदी में अनूदित नौ कृतियाँ और हिंदी से मराठी में अनूदित तीन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। डॉ. बाबासाहब आंबेडकर की जीवनी भी उन्होंने लिखी है।