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प्रस्तुत संग्रह की एक कहानी में जवारी अपने जीवनानुभवों को बटोरते हुए अपने हश्र से सद्बुद्घि ग्रहण करता है। जिंदा इनसान मुर्दा बनकर ठगी का धंधा करता है, जो अंततः जीवित संवेदनाओं के मृतक होने की घोषणा से कम नहीं है समय के मुश्किल हालात में, क्योंकि श्रम का मानक और साध्य-साधन का निकष ढीला पड़ता जा रहा है, त्वरित फलन की आवेगजनित आकांक्षाओं के वशीभूत। यद्यपि प्रेम के पेंच में प्रेम के महत्तम भावादर्शों की ऊँचाइयाँ निहित हैं, बावजूद प्रेम की विफलताओं ने प्रेम, प्रेम-विवाह और इससे जुड़ी सामाजिक व्यवस्थाओं को भी मृतप्राय कर दिया है। प्रेम सचमुच दसवें सुरों से आगे की यात्रा, यानी मौत का ही दूसरा नाम है, शायद छलावों और पछतावों में इसका हल अंतर्निहित हो, जो जीवन और मौत को अंतर्ग्रंथित भी करता है। ‘कीमत’, ‘शतरूपा’, ‘ठूँठ’, ‘बी-क्लासी’, ‘अंतर्ज्ञान’, ‘मुक्ति’ सभी कहानियाँ बूढ़े समय की कही कहानियों का और लगी नव्य क्लासों के नव्य पाठ की तरह हैं—बिलकुल अलग स्वाद के साथ परोसे व्यंजनों की तरह लजीज और स्वादिष्ट। कृपया पाठक बनकर अपनी चरपरा-बुद्धि से इन कहानियों को चखें, परखें; निश्चित ही इनको सुस्वादु और मनोरंजक पाएँगे।
जन्म : 11 अक्तूबर, 1968 को ग्राम सुगिया, पोस्ट अंबारी, जिला-शेखपुरा, बिहार में।
शिक्षा : बी.एस-सी. ऑनर्स (रसायन-शास्त्र प्रतिष्ठा)।
प्रकाशन : ‘जीवन घट अमृत’, ‘इबारत रोशनी’, ‘रोशनी पोशीदा है’, ‘परिवर्तन की भेंट’, ‘छाया का अभिसार’, ‘मुर्दा लोक’, ‘मौसम का कहना है’, ‘आगे सिर्फ तिरंगा’।
सम्मान-पुरस्कार : अखिल भारतीय साहित्य परिषद् का ‘भारतेंदु हरिश्चंद्र पुरस्कार’।
संप्रति : वरीय उप-समाहर्ता, बिहार राज्य (42वाँ बैच)।