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वर्ष 1932 में जब सारदेंदु बंद्योपाध्याय ने डिटेक्टिव फिक्शन में अपना हाथ आजमाने का फैसला किया, जिसे बंगाल की साहित्यिक दुनिया में उस समय तुच्छ समझकर हेय दृष्टि से देखा गया, तब उन्होंने सोचा नहीं था कि एक दिन ब्योमकेश बख्शी बांग्ला साहित्य के सबसे लोकप्रिय और लंबे समय तक मशहूर रहनेवाले किरदारों में से एक बना जाएगा। भले ही इसे कॉनन डॉयल के होम्स और चेस्टरटन के फादर ब्राउन की तर्ज पर गढ़ा गया है, ब्योमकेश के छानबीन का अपना ही अंदाज है, जो पेशे से नहीं बल्कि अपने शौक से डिटेक्टिव हैं, और कई पीढि़याँ उसके पाठकों में शामिल हैं।
सभी कहानियाँ पचास और साठ के दशक के कलकत्ता की पृष्ठभूमि की हैं। प्रस्तुत संग्रह चार अनसुलझी गुत्थियों को सामने लाता है, जो इस डिटेक्टिव की बौद्धिक चुस्ती की जबरदस्त परीक्षा लेती हैं। ‘द मेनाजरी’ (दिग्गज फिल्म निर्माता सत्यजीत रे ने 1967 में इस कहानी पर ‘चिडि़याखाना’ फिल्म बनाई थी) में ब्योमकेशजी ने एक विचित्र केस सुलझाया था, जिसमें मोटर के टूटे हुए पुरजे थे, स्वाभाविक सी लगने वाली मौत थी, और गोलाप कॉलोनी के विचित्र निवासी थे, जो अपने दागदार अतीत को छिपाने के लिए कुछ भी करने की क्षमता रखते थे। ‘द ज्वेल’ केस में वह रहस्यमयी ढंग से गायब हुए बेशकीमती हार की पड़ताल करते हैं, जबकि ‘द विल दैट वैनिश्ड’ में वे एक जिगरी दोस्त की अंतिम इच्छा पूरी करने को लेकर चक्कर में डाल देनेवाली पहेली को सुलझाते हैं।
सारदेंदु बंद्योपाध्याय का जन्म 30 मार्च, 1899 को उत्तर प्रदेश के जौनपुर जिले में हुआ था। उनके साहित्यिक जीवन की शुरुआत कविता-संग्रह से हुई, जो 1919 में प्रकाशित हुआ।
सन् 1938 में सारदेंदु ‘बॉम्बे टाकीज’ तथा अन्य फिल्म प्रतिष्ठानों में पटकथा लेखक के रूप में कार्य हेतु बंबई चले गए, जहाँ उन्होंने 1952 तक काम किया। इसके बाद उन्होंने फिल्मों में लिखना छोड़ दिया और पुणे आ गए तथा अपना ध्यान पुनः साहित्य-लेखन में लगाया। बाद में चलकर वे बँगला साहित्य में भूत-प्रेतों की कहानियों, ऐतिहासिक पे्रम-प्रसंगों और बाल-साहित्य के लोकप्रिय और प्रख्यात लेखक के रूप में उभरकर आए। किंतु ब्योमकेश की कहानियों का समकालीन बँगला साहित्य में आज भी योगदान माना जाता है।
सारदेंदु बंद्योपाध्याय को उनके उपन्यास ‘तुंगभद्रा तीरे’ के लिए 1967 में ‘रवींद्र पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया। उसी वर्ष उन्हें कलकत्ता विश्वविद्यालय की ओर से ‘शरत स्मृति पुरस्कार’ दिया गया। उनका बाद का जीवन पुणे में बीता, जहाँ 22 सितंबर, 1970 को उनका स्वर्गवास हो गया।