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"मध्यकाल के विषम और त्रासपूर्ण समय में विदेशी सत्ता के प्रभुत्व, स्वदेशी व्यभिचार के समावेश के कारण धार्मिक विकृति व धरमहारश तथा सामाजिक-सांस्कृतिक विखंडन का दंश झेल रही जनता के तारणहार बने मध्यकाल में अवतरित चैतन्य महाप्रभु, जिन्होंने न केवल विकृत व पतित होते वैष्णव धर्म को बचाया, वरन् जन-जन को सरल व सरस भक्ति तथा संकीर्तन स्वरूप युगधर्म का वह उपहार दिया, जो ज्ञान की दुरूहता, दर्शन की रहस्यमयता तथा कर्मकांड व पाखंडों की प्रबलता से सर्वथा रहित था। महाप्रभु की जन्मभूमि बंगाल के गौड़ प्रदेश से नवभक्ति-उन्मेष के साथ प्रवाहित हुए धर्म-साधना व भक्ति के स्वरूप ने 'गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय' के रूप में एक नवीन संप्रदाय स्थापित कर दिया। प्रेम को सर्वोत्तम पुरुषार्थ रूप घोषित कर मानवधर्म के श्रेष्ठत्व को श्रीमहाप्रभु ने प्रतिपादित किया। मानव को परस्पर जोड़कर विश्वात्मक बनाने की प्रेरणा दी। चैतन्य-संकीर्तन तपित विश्व को जीवन के मधुर संगीत में रूपांतरित करने का प्रबल माध्यम है।
प्रस्तुत पुस्तक 'चैतन्य महाप्रभु और गौड़ीय संप्रदाय' द्वारा गौड़ीय संप्रदाय से अवगत कराते हुए चैतन्य महाप्रभु के आदर्शों को आत्मसात् करने तथा चैतन्य की प्रेम शारदीया को आज की क्षत-विक्षत धरा पर उतारने की महती युगीन आवश्यकता को पूर्ण करने की ओर एक प्रयास है। श्रीचैतन्य महाप्रभु का जीवन कल, आज और कल के सुनहले संदर्भों का सुंदर समीकरण है।"