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"शाम ढल चुकी है, रात को चाँद की प्रतीक्षा है। विरह की अग्नि हर प्रेमी को अपने आगोश में ले रही है। प्रतीक्षा सदैव कष्ट दायी होती है। आँखें थक रही हैं मन आतुर है। आँसू हैं कि अनायास बहने लगे। मन की अग्नि ज्वाला बनकर आँसुओं को उष्णता प्रदान कर रही है, जिसने मन के साथ-साथ तन को भी जलाना प्रारंभ कर दिया है।
उनका प्रभाव और प्रवाह बढ़ता जा रहा है। विरह की तीव्रता का प्रेम की गहराई से सीधा संबंध है। इस अवस्था में अप्रिय विचारों का आना कदाचित् उनका स्वभाव है, मगर विश्वास की अग्नि परीक्षा यहीं से शुरू होती है। बेचैनी में भी धैर्य नहीं खोना है, कदाचित् यही विरह की प्रीत है"
मनोज सिंह
जन्म : 1 सितंबर, 1964 को आगरा (उ.प्र.) में।
शैक्षणिक योग्यताएँ : बी.ई. इलेक्ट्रॉनिक्स, एम.बी.ए.।
विभिन्न विश्वविद्यालयों, इंजीनियरिंग कॉलेज, मैनेजमेंट कोर्स एवं मास-कम्युनिकेशन से संबंधित शिक्षण संस्थानों में विशेषज्ञ व्याख्यान के लिए आमंत्रित।
प्रकाशित पुस्तकें : ‘चंद्रिकोत्सव’ (खंडकाव्य); ‘बंधन’, ‘कशमकश’, ‘हॉस्टल के पन्नों से’ (उपन्यास); ‘व्यक्तित्व का प्रभाव’, ‘चिंता नहीं चिंतन’ (लेख-संकलन); ‘मेरी पहचान’ (कहानी-संग्रह); ‘स्वर्ग यात्रा’ (कश्मीर से लद्दाख तक की यात्रा), ‘दुबई : सपनों का शहर’।
इ-मेल : sitemanojsingh@gmail.com