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मैं बचपन से ही चाय का प्रेमी रहा हूँ और Tea Estate कौसानी में ही मेरा जन्म हुआ है। डॉ. सुरेश प्रसादजी की काव्यमयी चाय पीकर इसी कारण विशेष रूप से आनंदित अनुभव करता हूँ। डॉ. सुरेशजी की चाय की प्याली में सुरा से भी अधिक मादकता है। पाठक एक पद ‘चाय’ का पढ़ें और एक चुस्की चाय पी लें—तभी उन्हें इस अद्भुत काव्य का वास्तविक महत्त्व जान पड़ेगा। इसका एक-एक चरण महाकाव्य का आनंद देता है, क्योंकि महाकाव्य के प्रेमी कितने होते हैं? चाय के प्रेमी आपको मजदूर से मंत्री तक सभी स्तरों के लोग मिलेंगे। इसलिए मुझे विश्वास है कि डॉ. सुरेश प्रसाद का यह शक्तिवर्धक टॉनिक ‘चाय’ भारत ही नहीं, अन्य हिंदी-प्रेमी देशों में भी अत्यंत लोकप्रिय होगी। इसकी महिमा से परिचित होकर लोग भाँग, मदिरा, अफीम आदि जहरीली चीजें खाना छोड़कर ‘चाय’ के स्वास्थ्यवर्धक चरणों का सेवन करेंगे।
उन्होंने अपनी ललित भावभीनी भाषा की प्याली में चाय रूपी महौषधि भरकर लोगों का उपकार किया। सिंधु-मंथन के कारण अमृत के बदले चाय की ही प्याली निकली होगी।
—सुमित्रानंदन पंत
जन्म : 2 जनवरी, 1939 को सोनभद्र के परम पावन तट पर बसे दाऊदनगर, ‘गया’ (अब औरंगाबाद), बिहार में।
शिक्षा : 1953 में प्रवेशिका परीक्षा (मैट्रिक) उत्तीर्ण। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से बी.एस-सी. (अंतिम वर्ष) की पढ़ाई के क्रम में ही 1956 में दरभंगा मेडिकल कॉलेज में नामाकंन।
कृतित्व : फुटबॉल के ‘कॉलेज इलेवन’ रहे और एक ‘चित्रकार’ के रूप में बहुचर्चित भी। 1961 में चिकित्सक की डिग्री प्राप्त; जिसके बाद एम.डी.(शिशु रोग) के लिए थीसिस लिखी; साथ ही थीसिस (Thesis) की संक्षिप्तिका (Summary) सर्वप्रथम लिखकर लोगों को आश्चर्य में डाल दिया। बिहार विश्वविद्यालय के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ।
दरभंगा से ही इन्होंने डी.सी.पी. तथा डी.टी.एम. ऐंड एच. किया। ‘पूसा’ जिला दरभंगा (अब समस्तीपुर) में करीब 3-4 वर्षों तक स्वतंत्र रूप से मेडिकल प्रैक्टिस की।