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"जिंदगी के साठ बरस बीत जाने के बाद जो एक अहम बात समझ में आई, वह यह कि जिंदगी चेतना की यात्रा है। हमारे साथ अकसर होता यह है कि हम जिंदगी का कोई नया पाठ पढ़ रहे होते हैं और राह चलता कोई अनजान व्यक्ति हमें एक नया ज्ञान दे जाता है। एक रिक्शाचालक जब एक दार्शनिक अंदाज में आप से कहे कि 'इस काया पर और इस माया पर क्या इतराना ?' तो हमें अपने वजूद का आकलन करने पर मजबूर होना पड़ता है। हमारी चेतना की एक नई यात्रा शुरू होती है। जिंदगी में कई ऐसे पड़ाव और मुकाम आए, जहाँ रुककर, ठहरकर लोगों के कहे शब्दों को सुनकर गुनना पड़ा।
इस सुनने, गुनने और बुनने की यात्रा में 'छलनी में पानी कैसे आएगा' जैसे सवाल से जूझते हुए इसका हुनर सीखने का अवसर मिला। वहीं 'भीतर के कोलाहल' से साक्षात्कार होना भी किसी सिद्धि से कम नहीं है। सहज लगने वाली मेल-मुलाकात आपको 'भीतर की यात्रा' करवा दे तो इससे बड़ा आनंद कुछ नहीं। और जिंदगी में अंतर्मन की यात्रा का आनंद आपको सहज ही मिलता रहे तो यह मान लीजिए कि आपकी चवन्नी रुपए में चल रही है। चलती ट्रेन या बस में कोई भला आदमी आपसे सीट बदलने का आग्रह करे और आप उसके आग्रह को निर्ममता से ठुकरा दें तो आत्मग्लानि का बोध होना स्वाभाविक ही है।"