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Chintan Karo, Chinta Nahin   

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Author Swami Vivekananda
Features
  • ISBN : 9789355214256
  • Language : Hindi
  • Publisher : Prabhat Prakashan
  • Edition : 1st
  • ...more

More Information

  • Swami Vivekananda
  • 9789355214256
  • Hindi
  • Prabhat Prakashan
  • 1st
  • 2022
  • 312
  • Soft Cover
  • 350 Grams

Description

"भारतीय सांस्कृतिक पुनर्जागरण की वैश्विक आध्यात्मिक विभूति स्वामी विवेकानंद शिकागो में विश्व धर्म सम्मेलन में मंत्रमुग्ध करनेवाले अपने भाषणों के बाद बहुत प्रसिद्ध हो गए थे। उनके शक्तिशाली शब्दों ने दुनिया भर के लोगों को प्रेरित किया है। उन्होंने मानव कल्याण और समाजहित के लिए जो सूत्र बताए, वे आज भी प्रासंगिक हैं। उनकी प्रभावी और ओजस्वी वाणी, प्रखर चिंतन व संवेदनशीलता ने मानवता को समता और समभाव का संदेश दिया। उनके शब्दों में अद्भुत और अप्रतिम सकारात्मकता थी, जो श्रोताओं को प्रेरित करती थी और साथ ही आत्मावलोकन के लिए प्रेरित भी ।

प्रस्तुत पुस्तक में स्वामी विवेकानंद द्वारा दिए गए सबसे उत्कृष्ट और प्रभावी भाषणों में से केवल पच्चीस संगृहीत हैं, जो कालजयी और सार्वकालिक हैं। स्वामी विवेकानंद के श्रीमुख से निःसृत ये शब्दरल हमारे जीवन को दिशा देने और सार्थकता प्राप्त करने की कुंजी हैं।


स्वतंत्र होने का साहस करें, जहाँ तक आपके विचार जाते हैं, जाने का साहस करें और उसे अपने जीवन में उतारने का साहस करें। --स्वामी विवेकानंद"

The Author

Swami Vivekananda

स्वामी विवेकानंद का जन्म 12 जनवरी, 1863 को कलकत्ता में हुआ था। इनका बचपन का नाम नरेंद्रनाथ था। इनके पिता श्री विश्‍वनाथ दत्त कलकत्ता हाईकोर्ट के एक प्रसिद्ध वकील थे। इनकी माता श्रीमती भुवनेश्‍वरी देवीजी धामर्क विचारों की महिला थीं। बचपन से ही नरेंद्र अत्यंत कुशाग्र बुद्ध के और नटखट थे। परिवार के धामर्क एवं आध्यात्मक वातावरण के प्रभाव से बालक नरेंद्र के मन में बचपन से ही धमर् एवं अध्यात्म के संस्कार गहरे पड़ गए। पाँच वर्ष की आयु में ही बड़ों की तरह सोचने, व्यवहार करनेवाला तथा अपने विवेक से हर जानकारी की विवेचना करनेवाला यह विलक्षण बालक सदैव अपने आस-पास घटित होनेवाली घटनाओं के बारे में सोचकर स्वयं निष्कर्ष निकालता रहता था। नरेंद्र ने श्रीरामकृष्णदेव को अपना गुरु मान लिया था। उसके बाद एक दिन उन्होंने नरेंद्र को संन्यास की दीक्षा दे दी। उसके बाद गुरु ने अपनी संपूर्ण शक्‍त‌ियाँ अपने नवसंन्यासी शिष्य स्वामी विवेकानंद को सौंप दीं, ताकि वह विश्‍व-कल्याण कर भारत का नाम गौरवान्वत कर सके। 4 जुलाई, 1902 को यह महान् तपस्वी अपनी इहलीला समाप्त कर परमात्मा में विलीन हो गया।

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