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भारत में सिनेमा ने हाल ही में सौ वर्ष पूरे किए हैं। सौ वर्षों की इस यात्रा में फिल्मों में नारी के प्रस्तुतीकरण और उसके समाज पर प्रभावों पर काफी कुछ लिखा और बोला गया। आलोचनाओं और प्रशंसाओं के बीच एक सत्य हमेशा मौजूद रहा कि फिल्मों की शुरुआत से ही नायिकाओं का अपने समय के नारी समाज पर गहरा प्रभाव रहा है। आम नारी सदैव ही अपने दौर की नायिकाओं से आकर्षित और प्रभावित रही है। यह प्रभाव चाहे नायिकाओं द्वारा निभाए पात्रों का हो या उनकी जीवनशैली का। दूसरी ओर समाज के वास्तविक किरदारों ने परदे के किरदारों को गढ़ने में सहायता की। फिल्मों के नारी पात्रों और नारी समाज के इन्हीं अंतर्संबंधों को इस पुस्तक में प्रस्तुत किया गया है।
वर्तमान जो औरत की स्थिति दिखाई दे रही है, वह कई वास्तविक और परदे के किरदारों के सामूहिक प्रभाव का नतीजा है। यह एक यात्रा है, यह जानने की कि नारी समाज का सौ साल का इतिहास किस-किस दौर से गुजरा। एक कोशिश है, परदे के किरदारों के जरिए औरत के उन एहसासों और जज्बातों को महसूस करने की, जिन्हें हम परदे के किरदारों के बगैर शायद नहीं कर पाते। हिंदी सिनेमा पर वैसे ही कम पुस्तकें लिखी गई हैं, हिंदी भाषा में तो इनका अकाल सा है। सिनेमा में नारी के प्रस्तुतीकरण पर क्रमबद्ध एवं विश्लेषणात्मक दृष्टि से लिखी गई यह पुस्तक बेहद रोचक एवं पठनीयहै।
शमीम खान का जन्म इंदौर, मध्य प्रदेश में हुआ था। वहीं उन्होंने अपनी प्रारंभिक से लेकर पी-एच.डी. तक की शिक्षा प्राप्त की। वह देवी अहिल्या विश्वविद्यालय की पहली ऐसी छात्रा हैं, जिन्होंने पूरी तरह फिल्मों पर आधारित किसी विषय पर पी-एच.डी. की है। पी-एच.डी. के बाद उन्होंने दैनिक जागरण और तहलका के दिल्ली कार्यालय में पत्रकार के रूप में कार्य किया। वर्तमान में कई प्रतिष्ठित समाचार-पत्रों, पत्रिकाओं और प्रकाशन संस्थानों के साथ स्वतंत्र पत्रकार और अनुवादक के रूप में कार्यरत। ‘सिनेमा में नारी’ इनकी पहली पुस्तक है।