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संक्रमण समाज को त्रस्त और भ्रमित कर रहा था। पूरा विश्व अपनी तरह से जूझ रहा था। भारत भी, भारतवासी भी। सबसे कठिन परीक्षा की घड़ी समाज-सेवी, राजनीतिक एवं गैर-राजनीतिक संगठनों की थी और हर व्यक्ति कोरोना से अपनी ताकत से जूझ रहा था।
मृदुलाजी ने कलम उठाई और कलम को हथियार बना लिया, अपने ढंग से कोरोना से लड़ने के लिए; उसी का प्रतिफल है यह उपन्यास।
ग्रामीण अंचल में मुखिया की बूढ़ी माँ ने अपने बेटे को आयुर्वेद से ठीक किया तो शहर में नव-नियुक्त डॉ. मयंक और डॉ. माला की शिक्षा से ज्यादा उनका संस्कार कोरोना से लड़ने में काम आने लगा। अस्पताल के अंदर-बाहर की घटनाओं का विस्तृत वर्णन और पैदल घर लौटते मजदूरों की यात्रा-गाथा है।
एक धागा कोरोना का पिरो गया 138 करोड़ को। अनंत अनुभव सबके साझे से। भारत ने इससे पहले शायद ही कभी देखा
हो, कोई भी ऐसा अनुष्ठान, जिसमें सब शामिल हो, जो सबको छूता हो, ‘न भूतो, न भविष्यति’
मृदुला सिन्हा
27 नवंबर, 1942 (विवाह पंचमी), छपरा गाँव (बिहार) के एक मध्यम परिवार में जन्म। गाँव के प्रथम शिक्षित पिता की अंतिम संतान। बड़ों की गोद और कंधों से उतरकर पिताजी के टमटम, रिक्शा पर सवारी, आठ वर्ष की उम्र में छात्रावासीय विद्यालय में प्रवेश। 16 वर्ष की आयु में ससुराल पहुँचकर बैलगाड़ी से यात्रा, पति के मंत्री बनने पर 1971 में पहली बार हवाई जहाज की सवारी। 1964 से लेखन प्रारंभ। 1956-57 से प्रारंभ हुई लेखनी की यात्रा कभी रुकती, कभी थमती रही। 1977 में पहली कहानी कादंबिनी' पत्रिका में छपी। तब से लेखनी भी सक्रिय हो गई। विभिन्न विधाओं में लिखती रहीं। गाँव-गरीब की कहानियाँ हैं तो राजघरानों की भी। रधिया की कहानी है तो रजिया और मैरी की भी। लेखनी ने सीता, सावित्री, मंदोदरी के जीवन को खंगाला है, उनमें से आधुनिक बेटियों के लिए जीवन-संबल हूँढ़ा है तो जल, थल और नभ पर पाँव रख रही आज की ओजस्विनियों की गाथाएँ भी हैं।
लोकसंस्कारों और लोकसाहित्य में स्त्री की शक्ति-सामर्थ्य ढूँढ़ती लेखनी उनमें भारतीय संस्कृति के अथाह सूत्र पाकर धन्य-धन्य हुई है। लेखिका अपनी जीवन-यात्रा पगडंडी से प्रारंभ करके आज गोवा के राजभवन में पहुँची हैं।