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भारत की पहचान उसके अध्यात्म से है। संत दादूदयाल ने अपने आध्यात्मिक बोध को राजस्थानी, गुजराती तथा उर्दू में बहुत ही सरल ढंग से प्रस्तुत किया है। वे निष्कर्ष रूप में समझाते हैं कि अपनी वृत्तियों को संसार से हटाकर परमात्मा की ओर लगाओ। ब्रह्म में वृत्ति लगने के बाद इंद्रियाँ बाह्य विषयों की ओर नहीं जाती हैं। इसके कारण मन की चंचलता दूर होती है और वृत्तियों को ब्रह्म में लीन करने में सुविधा होती है। संत दादूदयाल सहित दादूपंथियों ने 16वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से 20वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध तक यानी चार सौ वर्षों तक साहित्य रचना के साथ भारतीय समाज और संस्कृति को समृद्ध तथा सबल बनाने के लिए अनेक कार्य किए। 20वीं शताब्दी में दादूपंथियों ने संस्कृत महाविद्यालय तथा अनेक अन्य विद्यालयों की स्थापना की। इन विद्यालयों में दादूवाणी, संगीत, व्यायाम, अंग्रेजी आदि की शिक्षा दी जाती रही है ।
महाविद्यालय तथा विद्यालयों के शिक्षक व्याकरण, साहित्य, वेदांत, आयुर्वेद तथा अनेक दर्शनों के निष्णात विद्वान् थे। दादूपंथियों ने पंथ से जुड़े तालाबों तथा वृक्षों को महिमामंडित कर पर्यावरण की चेतना को जाग्रत् किया। इमली माहात्म्य, वट तीर्थ माहात्म्य, शमी तीर्थ, खेजड़ा माहात्म्य आदि लिखा। दादूदयाल से जुड़े स्थानों को पंचधाम के रूप में स्थापित किया। ये स्थान हैं- 1. कल्याणपुर (करड़ाला) तीर्थ, 2. सांभर तीर्थ, 3. आमेर तीर्थ, 4. नारायणा दादूधाम तीर्थ, 5. गिरि तीर्थ भैराणा । दादूपंथ की समझ दादूदयाल के अतिरिक्त उनके शिष्यों-प्रशिष्यों की पुस्तकों तथा उनसे जुड़े स्थानों के अध्ययन से ही विकसित होती है।