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"दे दीप्यमान, फिर भी गुप्त- यह आत्मा (ब्रह्म) हृदय रूपी गुहा में निवास करती है। वह सबकुछ, जो गतिशील है, श्वास लेता है, देखता है, अर्थात् समस्त इंद्रियाँ आत्मा में वास करती हैं, वह ज्ञान (शिक्षा) से परे है, सजीव निर्जीव समस्त जीवों/पदार्थों से श्रेष्ठ है।' 'इस प्रकाशमान, अविनाशी ब्रह्म, जो समस्त आधारों का आधार है, में संपूर्ण ब्रह्मांड, यह जगत् एवं समस्त जीव-जंतु निहित हैं। यह परम ब्रह्म ही जीवन है, यही वाणी है, यही वह तत्त्व है, जो अमर है, अविनाशी है। हे पुत्र ! तुमको इसी ब्रह्म का ज्ञान प्राप्त कर उसी में प्रवेश करना है।'
'हमारे पवित्र ज्ञानरूपी धनुष पर भक्तिरूपी तीर चढ़ाओ, ध्यानरूपी प्रत्यंचा को खींचो और लक्ष्य-भेद करो।'
'पृथ्वी, चित्त, प्राण, वितान, स्वर्ग इत्यादि उसके आवरण हैं। वह एकमात्र ही है; ब्रह्म ज्ञान ही मनुष्य को अमरत्व (मोक्ष) तक पहुँचाने वाला पुल है।'
- इसी पुस्तक से
प्रत्येक उपनिषद् किसी-न-किसी वेद के खंड से जुड़ा हुआ है और उसी खंड के अनुसार उसका नामकरण किया गया है। उदाहरण के लिए कठोपनिषद् यजुर्वेद की कठ शाखा के अंतर्गत आता है। भारतीय वाड्मय के अत्यंत महत्त्वपूर्ण अंग 'उपनिषदों' में से दस प्रमुख उपनिषदों का अत्यंत सरल एवं सहज भावानुवाद है। इनका अध्ययन पाठकों को जीवन का असली अर्थ और मर्म समझने की दृष्टि उत्पन्न करेगा।"