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सूर्यकांत बाली का यह उपन्यास वैदिक प्रेमकथा पर आधारित है। वैदिक काल के कथानकों को उपन्यासों के माध्यम से पाठकों तक सशक्त और अत्यंत आकर्षक शैली में पहुँचाने वाले श्री बाली हिंदी ही नहीं, समस्त भारतीय भाषाओं के पहले उपन्यासकार के रूप में उभरकर हमारे सामने आए हैं। प्रस्तुत उपन्यास महत्त्वपूर्ण वैदिक कवि ‘दीर्घतमा’ पर आधारित है। दीर्घतमा जन्मांध थे; लेकिन प्रकृति ने उनके इस अभाव की पूर्ति उन्हें तीव्र प्रतिभाशाली और संवेदनशील कवि बनाकर की थी। जन्म से पूर्व ही पिता और फिर शीघ्र ही माँ का देहांत हो जाने से वे अकेले पड़ गए। दीर्घतमा के काव्य में माँ और पिता की भावुक तलाश का मार्मिक चित्रण मिलता है। अनेक स्त्रियों ने दीर्घतमा से प्रेम किया, जिसका पुराणों में कई बार बड़ी ही लच्छेदार शैली में वर्णन मिल जाता है। पर प्रेयसियों से भरपूर जीवन में भी दीर्घतमा की अपनी माँ की ममता की तलाश बुझी नहीं और उसी तलाश में उनके काव्य का सौंदर्य और गहराई बढ़ने लगी। दुष्यंत-शकुंतला के पुत्र और हस्तिनापुर के चक्रवर्ती सम्राट् भरत के समकालीन दीर्घतमा आंगिरस कुल के थे। बड़े ही पुराने समय से इस कुल के संबंध वैशाली राजवंश से थे। वैशाली राजवंश भारत के पूर्व में राज करता था, जिसने उस नदी के किनारे अपनी राजधानी बनाई, जिसे आज हम गंडक नदी के नाम से जानते हैं।
दीर्घतमा की जीवनगाथा को जिन परंपराओं के जरिए आज तक सँजोकर रखा है, प्रेम और दार्शनिकता से भरपूर उसी जीवनगाथा पर यह उपन्यास आधारित है, जिसमें वैदिक काल के आश्रमों, राजमहलों और सामान्य जीवनशैली को बड़े ही सजीव तरीके से पाठकों के समक्ष रख दिया गया है।
भारतीय संस्कृति के अध्येता और संस्कृत भाषा के विद्वान् श्री सूर्यकान्त बाली ने भारत के प्रसिद्ध हिंदी दैनिक अखबार ‘नवभारत टाइम्स’ के सहायक संपादक (1987) बनने से पहले दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्यापन किया। नवभारत के स्थानीय संपादक (1994-97) रहने के बाद वे जी न्यूज के कार्यकारी संपादक रहे। विपुल राजनीतिक लेखन के अलावा भारतीय संस्कृति पर इनका लेखन खासतौर से सराहा गया। काफी समय तक भारत के मील पत्थर (रविवार्ता, नवभारत टाइम्स) पाठकों का सर्वाधिक पसंदीदा कॉलम रहा, जो पर्याप्त परिवर्धनों और परिवर्तनों के साथ ‘भारतगाथा’ नामक पुस्तक के रूप में पाठकों तक पहुँचा। 9 नवंबर, 1943 को मुलतान (अब पाकिस्तान) में जनमे श्री बाली को हमेशा इस बात पर गर्व की अनुभूति होती है कि उनके संस्कारों का निर्माण करने में उनके अपने संस्कारशील परिवार के साथ-साथ दिल्ली विश्वविद्यालय के हंसराज कॉलेज और उसके प्राचार्य प्रोफेसर शांतिनारायण का निर्णायक योगदान रहा। इसी हंसराज कॉलेज से उन्होंने बी.ए. ऑनर्स (अंग्रेजी), एम.ए. (संस्कृत) और फिर दिल्ली विश्वविद्यालय से ही संस्कृत भाषाविज्ञान में पी-एच.डी. के बाद अध्ययन-अध्यापन और लेखन से खुद को जोड़ लिया। राजनीतिक लेखन पर केंद्रित दो पुस्तकों—‘भारत की राजनीति के महाप्रश्न’ तथा ‘भारत के व्यक्तित्व की पहचान’ के अलावा श्री बाली की भारतीय पुराविद्या पर तीन पुस्तकें—‘Contribution of Bhattoji Dikshit to Sanskrit Grammar (Ph.D. Thisis)’, ‘Historical and Critical Studies in the Atharvaved (Ed)’ और महाभारत केंद्रित पुस्तक ‘महाभारतः पुनर्पाठ’ प्रकाशित हैं। श्री बाली ने वैदिक कथारूपों को हिंदी में पहली बार दो उपन्यासों के रूप में प्रस्तुत किया—‘तुम कब आओगे श्यावा’ तथा ‘दीर्घतमा’। विचारप्रधान पुस्तकों ‘भारत को समझने की शर्तें’ और ‘महाभारत का धर्मसंकट’ ने विमर्श का नया अध्याय प्रारंभ किया।