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ड़स काव्य-कृति में एक विशिष्ट भाव-प्रवणता लिए एककाव्य-रूपक सृजित हुआ है, जिसमें यह बिंब बनता है कि शरीर रूपी सराय में आत्मा रूपी प्रियतमा को एक निश्चित कालावधि के लिए रहना है, जिसमें उसे गत कर्मों का साक्षी भी बनना है एवं अगली यात्रा की शक्ति के आराधन पुंज भी संगृहीत करने हैं। यह तभी संभव है, जब देह विकार से मुक्त होकर स्वच्छ एवं सतत शोधन की प्रक्रिया से गुजरती रहे, ताकि 'योग:कर्मसु कौशलम्' के परिप्रेक्ष्य में कर्म की कुशलता का सुयोगप्राप्त हो सके । इसी के दृष्टिगत काया को आत्मा के प्रवास एवं इसके सतत उन्नयन के निमित्त स्वस्थ एवं निर्विकार रखना मानवदेह का परम कर्तव्य है एवं यही योग की पूर्व पीठिका है । देह एवंमन की भावानुभूति को प्रियतम से संवाद करते हुए इस काव्यकृति में देखा जा सकता है। आश्रय-अतिथि के दह्रैत मेंअद्वय रागात्मकता देह-मन-आत्मा के योग में यत्र-तत्र-सर्वत्र है और इस प्रकार एक अन्योन्याश्रित संबंध रूपक रचित हुआ है ।
देह मन माध्यम तुम्हारे योग का
मेरी प्रकृति का पुरुष से संयोग का
जन्म : 08 दिसंबर, 1978 को चंडीगढ़ (पंजाब) में।
शिक्षा : परास्नातक (हिंदी), डिप्लोमा इन इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग।
पत्र-पत्रिकाओं में विविध विषयी रचनाएँ प्रकाशित। शिक्षा, धर्म, संगीत, जीवन-चरित्र, खेल तथा कुकिंग जैसे विभिन्न विषयों का गहन अध्ययन कर अपनी लेखनी के रंग बिखेर रहे हैं। अब तक तीस से भी अधिक पुस्तक लिखित व संपादित।
संप्रति : स्वतंत्र लेखक, संपादक और अनुवादक।