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"शुक्राचार्य का ध्यान भंग हुआ एवं अपने समीप एक अपरिचित तरुण को देखकर प्रश्नसूचक दृष्टि से उसे देखने लगे। तत्पश्चात् कच ने कुछ कहा, जिसे देवयानी नहीं सुन सकी, परंतु वह यह देखकर चकित रह गई कि शुक्राचार्य ने कच को आलिंगनबद्ध कर लिया तथा उसका मस्तक सूँघने लगे।
'आज से तुम इस आश्रम के सदस्य हो। मैं तुम्हें विद्या-दान अवश्य दूँगा, पुत्र कच।' शुक्राचार्य का यह कथन देवयानी ने स्पष्टरूपेण सुना।
'गुरुदेव, मैं यह व्रत लेकर आया हूँ कि जब तक मेरी दीक्षा पूर्ण होगी, तब तक मैं पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करूँगा।'
यह सुनकर देवयानी क्षुब्ध हो उठी। उसके हृदय में नाना प्रकार के विचार-तरंग उठने लगे। 'स्वयं के प्रति कितना श्रेष्ठ भाव है इस युवक में!' 'यहाँ कौन इसका ब्रह्मचर्य खंडित करने हेतु प्रतिबद्ध होकर बैठा है?' ""पिताश्री क्यों इस प्रकार अनुग्रह प्रदर्शित कर रहे हैं?' 'इस अभिमानी युवक से किसी प्रकार का संवाद रखना उचित नहीं।'
यह संकल्प लेकर देवयानी अपनी दिनचर्या में व्यस्त हो गई परंतु बारंबार उसके मानस- पटल पर कच का प्रभावशाली व्यक्तित्व प्रकाशित हो जाता। अब तो कच स्वप्नों में भी दस्तक देने लगा था।
देवयानी को केंद्र में रखकर लिखा पौराणिक आख्यान, जो तत्कालीन समाज व्यवस्था, संघर्ष, साहस और संबंधों को रेखांकित करता है।"