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धर्म की इस विकृति व भ्रांति के साथ स्वार्थ व अहंकार इतना अधिक जुड़ गए है कि सामान्य व्यक्ति धर्म की वास्तविक अवधारणा को भूलकर इस विभाजित चेतना को ही सत्य मानने लगा है। विभाजित व स्वार्थ प्रधान चेतना से उपजे जो विभिन्न धर्म हैं उनमे से अनेक केवल अपने अहंकार, स्थार्थ व आक्रामकता के काराण ही फल-फूल रहे हैं। धर्म का आवरण लेकर अपनाई गई यह आक्रामकता ही ' सांप्रदायिकता' है। इस आक्रामकता को कहीं राजनीतिक कारणों से अपनाया गया और कहीं आर्थिक कारणों से तो कहीं सामाजिक कारणों से। आज स्थिति इतनी बिगड़ी हुई है कि अपना- अपना तथाकथित धार्मिक दर्शन थोपने के लिए धनबल, छलबल व बाहुबल का खुलकर प्रयोग हो रहा है और वह भी सभ्यता व संस्कृति के नाम पर ।
धर्म का लक्ष्य है भेदजनित भ्रांति व अज्ञान का निवारण। लेकिन वस्तुस्थिति यह है कि यह निवारण भी वैयक्तिक स्तर पर ही अनुभूति के माध्यम से करना होगा । इस दृष्टि से भेद की सत्ता के अस्तित्व को जगत् के स्तर पर अस्वीकार नहीं किया जा सकता। जैसेकि महासागर में लहर के अस्तित्व को अस्वीकार नहीं किया जा सकता, वैसे ही विराट् चैतन्य के महासागर में भेद रूपी लहर को स्वीकार करना ही होगा; पर ध्यान रहे कि वास्तविक अस्तित्व लहर का नहीं है वरन् महासागर का है।
प्रस्तुत पुस्तक में लेखक ने जीवन के सभी पक्षों को लेकर समाज, धर्म, देश आदि अनेक विषयों पर अपने भावों को व्यक्त किया है।
नरेंद्र मोहन का जन्म 10 अक्तूबर, 1934 को हुआ । पत्रकारिता के क्षेत्र में वे लगभग 12 वर्ष की आयु में ही प्रवेश कर चुके थे । अब तक वे आठ हजार लेख, पाँच सौ से अधिक कविताएँ, सौ से अधिक कहानियाँ, दो दर्जन से अधिक नाटक लिख चुके हैं । उनकी कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं ।
उन्हें जीवन में देश-विदेश के भ्रमण का विशेष अवसर प्राप्त हुआ । उन्होंने अनेक बार विश्व के प्रमुख देशों की यात्राएँ कीं और विश्व के अनेक प्रमुखतम राष्ट्राध्यक्षों से मिलने का अवसर भी प्राप्त हुआ ।
नरेंद्रजी देश के प्रमुख पत्रकारिता संस्थान ' प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया ' (पीटी. आई) के अध्यक्ष रहे । पत्रकारिता के अन्य संस्थानों की कार्यकारिणी के साथ-साथ अन्य पदों से भी जुड़े रहे । सन् 1996 में राज्यसभा के सदस्य चुने गए ।