इसी बीच प्रधानाध्यापक एकाएक आए और मुझे टोका, ‘‘देखिए, यहाँ पास में कोई खेल नहीं खेला जा सकता। चाहो, तो दूर उस मैदान में चले जाइए। यहाँ दूसरों को तकलीफ होती है।’’
मैं लड़कों को लेकर मैदान में पहुँचा।
लड़के तो बे-लगाम घोड़ों की तरह उछल-कूद मचा रहे थे। ‘‘खेल! खेल! हाँ, भैया खेल!’’
मैंने कहा, ‘‘कौन सा खेल खेलोगे?’’
एक बोला, ‘‘खो-खो।’’
दूसरा बोला, ‘‘नहीं, कबड्डी।’’
तीसरा कहने लगा, ‘‘नहीं, शेर और पिंजड़े का खेल।’’
चौथा बोला, ‘‘तो हम नहीं खेलते।’’
पाँचवाँ बोला, ‘‘रहने दो इसे, हम तो खेलेंगे।’’
मैंने लड़कों की ये बिगड़ी आदतें देखीं।
मैं बोला, ‘‘देखो भई, हम तो खेलने आए हैं। ‘नहीं’ और ‘हाँ ’ और ‘नहीं खेलते,’ और ‘खेलते हैं,’ करना हो तो चलो, वापस कक्षा में चलें।’’
लड़के बोले, ‘‘नहीं जी, हम तो खेलना चाहते हैं।’’
—इसी पुस्तक से
बाल-मनोविज्ञान और शैक्षिक विचारों को कथा शैली में प्रस्तुत करनेवाले अप्रतिम लेखक गिजुभाई के अध्यापकीय जीवन के अनुभव का सार है यह—‘दिवास्वप्न’।
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अनुक्रम
जवाब दीजिए—5
कैसे चैन आए?—6
दो शब्द—7
1. प्रथम खंड
प्रयोग का आरंभ—11
2. द्वितीय खंड
प्रयोग की प्रगति—37
3. तृतीय खंड
छह महीनों के अंत में—61
4. चौथा खंड
अंतिम सम्मेलन—99
गिजुभाई
जन्म : 15 नवंबर, 1885।
गिजुभाई बधेका गुजराती भाषा के लेखक और महान् शिक्षाशास्त्री थे। उनका पूरा नाम गिरिजाशंकर भगवानजी बधेका था। अपने प्रयोगों और अनुभव के आधार पर उन्होंने आकल्पन किया था कि बच्चों के सही विकास के लिए, उन्हें देश का उत्तम नागरिक बनाने के लिए, किस प्रकार की शिक्षा देनी चाहिए और किस ढंग से। इसी आधार पर उन्होंने बहुत सी बालोपयोगी कहानियाँ लिखीं।
ये कहानियाँ बालमन, उसकी कल्पना की उड़ान और उसके खिलंदड़े अंदाज को व्यक्त करती हैं। बच्चे इन कहानियों को चाव से पढ़ें, उन्हें पढ़ते या सुनते समय उनमें लीन हो जाएँ, इस बात का उन्होंने पूरा ध्यान रखा। संभव-असंभव, स्वाभाविक-अस्वाभाविक, इसकी चिंता उन्होंने नहीं की। यही कारण है कि इन कहानियों की बहुत सी बातें अनहोनी सी लगती हैं, पर बच्चों के लिए तो कहानियों में रस प्रधान होता है, कुतूहल महत्त्व रखता है और ये दोनों ही चीजें इन कहानियों में भरपूर हैं।
स्मृतिशेष : 23 जून, 1939।