₹175
सुपात्र को दान देना, गुरु के प्रति विनय रखना, प्राणिमात्र के प्रति दया रखना, न्यायपूर्ण आचरण करना, दूसरों के हित का विचार करना, लक्ष्मी का अभिमान नहीं करना और सज्जन पुरुषों की संगति करना सामान्य धर्म का स्वरूप है। निर्मल बुद्धिवाले व्यक्तियों को इनका पालन करना चाहिए।
त्याग धर्म है, भोग अधर्म है। संयम धर्म है, असंयम अधर्म है। धर्म अनमोल है, मूल्य से प्राप्त होनेवाला धर्म नहीं है। व्यक्ति धर्म को समझे, बुराइयों का त्याग करे, नशा छोड़े, गुस्सा छोड़े और बेईमानी को छोड़े। धर्म को समझकर पाप को छोड़नेवाला व्यक्ति दुःख-मुक्त होता है और अधर्म के रास्ते पर चलनेवाला अथवा अदृष्टधर्मा व्यक्ति अपने लिए दुःख तैयार कर लेता है।
प्रस्तुत पुस्तक में इसी प्रकार के आध्यात्मिक विकास और भावोन्नति के अनेक सूत्र प्रतिपादित हैं। यह हर आयु वर्ग के पाठकों को निश्चय ही सत्पथ पर अग्रसर करने में सक्षम है।
मानव-जीवन को तनावमुक्त कर सरल और आनंदमय बनाने का मार्ग प्रशस्त करती प्रीतिकर पुस्तक।
आचार्य महाश्रमण उन महान् संत-विचारकों में से एक हैं जिन्होंने आत्मा के दर्शन को न केवल व्याख्यायित किया है, अपितु उसे जीया भी है।
13 मई, 1962 को राजस्थान के एक कस्बे सरदारशहर में जनमे एवं 5 मई, 1974 को दीक्षित हुए आचार्य महाश्रमण अणुव्रत आंदोलन के प्रवर्तक आचार्यश्री तुलसी एवं आचार्यश्री महाप्रज्ञ की परंपरा में तेरापंथ धर्मसंघ के 11वें आचार्य के रूप में प्रतिष्ठित हैं।
वे एक साहित्यकार, परिव्राजक, समाज सुधारक एवं अहिंसा के व्याख्याकार हैं। आचार्य श्रीमहाप्रज्ञ के साथ अहिंसा यात्रा के अनंतर आपने लाखों ग्रामवासियों एवं श्रद्धालुओं को नैतिक मूल्यों के विकास, सांप्रदायिक सौहार्द, मानवीय एकता एवं अहिंसक चेतना के जागरण के लिए अभिप्रेरित किया।
‘चरैवेति-चरैवेति’ सूक्त को धारण कर वे लाखों-लाखों लोगों को नैतिक जीवन जीने एवं अहिंसात्मक जीवन-शैली की प्रेरणा देने के लिए पदयात्राएँ कर रहे हैं। अत्यंत विनयशील आचार्य महाश्रमण अणुव्रत, प्रेक्षाध्यान, जीवन विज्ञान एवं अहिंसा प्रशिक्षण जैसे मानवोपयोगी आयामों के लिए कार्य कर तनाव, अशांति तथा हिंसा से आक्रांत विश्व को शांति एवं संयमपूर्ण जीवन का संदेश दे रहे हैं। शांत एवं मृदु व्यवहार से संवृत्त, आकांक्षा-स्पृहा से विरक्त एवं जनकल्याण के लिए समर्पित युवा मनीषी आचार्य महाश्रमण भारतीय संत परंपरा के गौरव पुरुष हैं।