₹250
माँ मुसकराई। लगा जैसे दर्द से मुसकरा रही हो। बोली—बेटे, बहुत कुछ मिलता है। और मुझे तो यह चुभ रहा है कि तुम मेरे बेटे होकर यह सबकुछ कह रहे हो। मैंने तुम्हें यह संस्कार तो नहीं देना चाहा था। तुम्हें इन गंदे गरीबों से इतनी घिनू है तो इनका इलाज कैसे करोगे?
‘इलाज की बात और है, मा। ये मेरे यहाँ आएँगे तो भगा तो नहीं दूँगा। मुझे तो जो भी फीस देगा, उसका इलाज करूँगा।’
‘मगर वे तुम्हारी फीस कहाँ से दे पाएँगे? इसलिए वे वैसे भी तुम्हारे पास नहीं आएँगे!’
‘ठीक कहती हो, माँ!’
‘हाँ, लेकिन तुम ठीक नहीं कह रहे हो।’
‘क्या, माँ?’
‘वही, जो तुम कह रहे हो। जानते हो, इस देश में कितनी बड़ी संख्या है इन अभागों की? क्या उच्च शिक्षित लोगों का इनके प्रति कोई दायित्व नहीं होता? डॉक्टर इनका इलाज न करें, वकील इनका केस न लड़ें, शिक्षक इन्हें पढ़ाएँ नहीं, नेता और अफसर इन्हें अपने पास फटकने न दें, पुलिसवाले इन्हें कीड़े-मकोड़ों से बदतर समझें तो इनका क्या होगा? पैसेवाले इन्हे गरीबी और गंदगी में झोंककर सारी सुख-सुविधाओं पर कुंडली मारे बैठे हैं। आखिर यह कब तक चलेगा? क्या इनके घावों पर फाहा रखने का दायित्व हम लोगों का नहीं होता?’
‘वाह माँ, तुम तो कवि हो गई हो। लेकिन आज कविता से काम नहीं चलता। और जिन्हें तुम गरीब कह रही हो, उनकी झुग्गियों में जाकर देखो, वहाँ क्या नहीं...’
—इसी पुस्तक से