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Gita Mein Gyanyog   

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Author Champa Bhatia
Features
  • ISBN : 9789390378685
  • Language : Hindi
  • Publisher : Prabhat Prakashan
  • Edition : 1st
  • ...more
  • Kindle Store

More Information

  • Champa Bhatia
  • 9789390378685
  • Hindi
  • Prabhat Prakashan
  • 1st
  • 2024
  • 136
  • Soft Cover
  • 200 Grams

Description

दरणीया चंपा भाटिया की इस पुस्तक की पांडुलिपि से गुजरते हुए मैंने महसूस किया कि यह एक सहज-सरल आध्यात्मिक मन का स्वाभाविक प्रस्फुटन है। न कोई बनावट, न बुनावट। चंपाजी ने आध्यात्मिक-धार्मिक आयोजनों, समागमों में जो सुना, समझा और आत्मसात् किया, उसे जस-की-तस रख दिया है। इस पुस्तक में कहीं भी पांडित्य प्रदर्शन का प्रयास नहीं किया गया है। चंपा भाटिया कोई विदुषी नहीं हैं। वह एक गृहिणी हैं। वे घर-परिवार चलाने के लिए कारोबार भी सँभालती हैं। उसमें से समय निकालकर उन्होंने गीता के श्लोकों के अध्ययन-मनन के उपरांत आम लोगों की समझ में आनेवाली भाषा में तत्त्वज्ञान को निरूपित करने का प्रयास किया है। इस पुस्तक में विभिन्न श्लोकों की व्याख्या करते हुए सतोगुणी, रजोगुणी और तमोगुणी कर्मों की चर्चा तो की गई है, लेकिन निष्काम कर्म (यानी कर्मों के फल का कोई बंधन न होना) को अत्यंत बरीकी से उकेरा गया है। इस पुस्तक में यह पुनर्स्थापित करने का प्रयास किया गया है कि ज्ञाता और ज्ञेय की एकता ही ज्ञान है। ईश्वर को जानने के लिए तीन बुनियादी शर्तें इस पुस्तक में बताई गई हैं—इच्छा (जिज्ञासा), श्रद्धा और समर्पण।

इतना अवश्य है कि इसके अध्ययन से जिज्ञासुओं को ईश्वर को जानने-समझने के लिए एक रोशनी जरूर मिलेगी। दूसरे शब्दों में कहें तो गीता के तत्त्वज्ञान के शोधार्थियों, अर्घ्यताओं के लिए यह पुस्तक पाथेय का काम करेगी, ऐसी आशा है। यह उन्हें संतृप्त भले ही न करे, लेकिन अतृप्त मन को तृप्ति की राह तो बताएगी ही।

—बैजनाथ मिश्र

पत्रकार एवं पूर्व सूचना आयुक्त, झारखंड

The Author

Champa Bhatia

चंपा भाटिया

सन् 1949 में लुधियाना के एक संयुक्त आध्यात्मिक परिवार में जन्म हुआ। पूरा परिवार निरंकारी मिशन से जुड़ा था, इसलिए मैं बचपन से ही परिवार के साथ सत्संग में जाने लगी। सत्संग से लौटने के बाद घर में विभिन्न बिंदुओं पर चर्चा होती थी। थोड़ी बड़ी हुई तो जिज्ञासावश कुछ प्रश्न-प्रतिप्रश्न भी करने लगी। स्कूली शिक्षा लुधियाना में ही हुई, लेकिन मन सत्संग और भारतीय मनीषा में ग्रंथों को पढ़ने में ही लगा रहा। सन् 1967 में विवाह के बाद मैं राँची आ गई। यहाँ भी मुझे आध्यात्मिक परिवेश मिला। संस्कृत के प्रति मेरी अभिरुचि स्कूल के दिनों से ही थी, इसलिए राँची में घर-गृहस्थी सँभालते हुए मैंने धार्मिक ग्रंथों के अध्ययन-मनन तथा यथासंभव अनुशीलन का कार्य जारी रखा। इसी बीच अंतर्मन में उत्पन्न भावों को अभिव्यक्त करने की अकुलाहट ने मुझे लिखना-बोलना सिखा दिया। यदा-कदा पत्र-पत्रिकाओं में भी लेख छपने लगे। ‘गीता में ज्ञानयोग’ प्रथम पुस्तक है।

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