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Gyanvardhak Laghukathayen    

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Author Mukti Nath Singh
Features
  • ISBN : 9788193433218
  • Language : Hindi
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More Information

  • Mukti Nath Singh
  • 9788193433218
  • Hindi
  • Prabhat Prakashan
  • 2017
  • 128
  • Hard Cover

Description

गीता का कथन है कि ज्ञान के समान पवित्र इस संसार में और कुछ नहीं। ज्ञान एक प्रकार का प्रकाश है, जिसकी छत्रच्छाया में हम समीपवर्ती वस्तुओं के संबंध में यथार्थता से अवगत होते और उनका सही उपयोग कर सकने की स्थिति में होते हैं। महामानवों द्वारा इतनी मात्रा में सद्ज्ञान छोड़ा गया कि उसे मात्र बटोरने की आवश्यकता है।
ज्ञान का प्रचार-प्रसार कथा रूप में सरलता से होता है, अस्तु हमारे प्राचीन काल से ही कथाओं का विशेष स्थान रहा है। मानवता, नैतिकता, सदाचार, त्याग,  प्रेम, समर्पण, राष्ट्रनिष्ठा आदि तत्त्वों को केंद्र में रखकर समाज-जीवन के सभी विषयों को समेटे लघुकथाओं ने हमारे विशद ज्ञानभंडार को समृद्ध किया है।
‘ज्ञानवर्धक लघुकथाएँ’ कृति अपने अंदर 174 ऐसी ही कथाओं को समेटे हुए है, जिसकी हर कथा कोई-न-कोई अपने अनुकूल सद्ज्ञान छोड़ती गई है, जिसे अपनाकर  व्यक्ति  सुविधापूर्वक, सुरक्षापूर्वक इच्छित लक्ष्य तक पहुँच सकता है।

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अनुक्रम  
1. रथ की रश्मि—13 89. निर्विकल्प समाधि—64
2. अटल श्रद्धा—14 90. अहंकार और दांपत्य प्रेम—64
3. ज्ञान के प्रदीप—14 91. महापुरुषों के वचन—65
4. ब्रह्माजी का अहंकार—15 92. असुरता का संहार—66
5. धर्म मार्ग—15 93. व्रत पालन—66
6. माया का अंधकार—16 94. जीवन की श्रेष्ठता—67
7. पैसा ही सबकुछ नहीं है—17 95. कर्मों की महा—67
8. आत्मिक शांति—17 96. निरासत—68
9. भत की भति और भगवान् का अनुग्रह—18 97. प्रेम में मग्न—68
10. लोक कल्याण में आत्म कल्याण की भावना—19 98. महाराज जनक की सभा—69
11. परम सुख—20 99. विनम्रता—69
12. मनुष्य का धर्म—20 100. भति ही सबसे महान्—70
13. भगवद्धाम की प्राप्ति—21 101. प्रयास करने से दक्षता आती है—71
14. त्याग—22 102. ईश्वर दर्शन—71
15. सत्संग का माहात्म्य—22 103. परमार्थ प्रयोजन—72
16. टिटिहरी का स्वर—23 104. आत्मा परमधन—72
17. सच्ची प्रार्थना—24 105. गुरुनिष्ठा—73
18. मजहब का उसूल—24 106. दुर्व्यवहार—73
19. दान का पुण्य—25 107. कामना—74
20. सामर्थ्य का श्रेष्ठमार्ग—26 108. पाप की उपेक्षा कर पुण्य की तलाश—75
21. दया और त्याग की महिमा—26 109. व्यति दंड द्वारा उतना नहीं सीखता, जितना क्षमा और प्रेम द्वारा—75
22. शांति का अधिकारी—27 110. ममता का उार श्रद्धा से—76
23. आत्मविजय का पथिक—28 111. पतिव्रता देवियों के तेज का प्रमाण—77
24. व्यतित्व का परिष्कार—28 112. जीवन में सफलता—77
25. मोक्ष के लिए परोपकार तथा सेवा आवश्यक—29 113. जीवन-उद्देश्य—78
26. करुणा और भति—30 114. विवाद का हल विवेकपूर्वक हो—79
27. धर्म पथ—30 115. शरीर और आत्मा के बीच बातचीत—80
28. स्वर्ग से ज्ञान बड़ा है—31 116. संस्कारों का निर्माण अन्न से होता है—80
29. सत्य और असत्य में अंतर—31 117. सम्राट् भरत का अहंकार—81
30. चमत्कार क्रिया में नहीं श्रद्धा में होती है—32 118. वासना पर भति की विजय—82
31. शुभ एवं अशुभ कर्मों का फल—32 119. पुण्यदायक कर्म—83
32. सेवक को प्रणाम—33 120. समर्थ गुरु रामदास और शिष्य शिवाजी के बीच विचारों का आदान-प्रदान—84
33. नसीहत—34 121. सच्ची श्रद्धा-निष्ठा का मूल्य नहीं होता—85
34. निंदनीय पद—34 122. बेटे की डाँट—85
35. आराध्य देव से प्रेम—35 123. कुसंस्कार रूपी क्रोध—86
36. सुखी दांपत्य जीवन—35 124. विद्वता और महानता का संबंध आत्मा से—88
37. कबीर वाणी—36 125. सज्जन की आवश्यकता—88
38. संग के कारण प्राणियों में गुण या दोष—36 126. राजा जनक को अष्टावक्र की ताड़ना—89
39. धन की शुद्धि—37 127. परमात्मा की चेतावनी—90
40. पुण्य कार्य टाला नहीं जाता—37 128. पढ़ने का लाभ—90
41. मुति का मार्ग—38 129. जीवन का सच्चा आनंद—91
42. भगवान् भोग के नहीं भाव के भूखे हैं—39 130. वाणी का संयम—92
43. दरिद्र का भोज—39 131. बिना परिश्रम खाने की आदत—92
44. शिवाजी की मूर्खता—40 132. समाज के कल्याण की ओर—93
45. स्वर्ग का अधिकारी—41 133. सत्य की प्राप्ति—93
46. स्नेहातिरेक—41 134. प्रमादी का लक्षण—94
47. क्रोध सहन करने की क्षमता—42 135. उपकारी से उऋण होने का मार्ग—94
48. जीवन एक शीतल मंद बयार—42 136. क्रोध को शांति से जीतो—95
49. परोपकार—43 137. सेवा भावना—95
50. आतुरता—43 138. निमाई और रघुनाथ—96
51. सोच में नकारात्मकता की जगह नहीं—44 139. विनोबा भावे के बचपन की एक घटना—97
52. दोजख की राह—45 140. दया यज्ञ—97
53. करुणा की आवश्यकता—45 141. विनम्रता का परिचय—98
54. रहीम द्वारा हार्दिक सम्मान—46 142. अपराध-बोध—99
55. अप्रिय सत्य—46 143. दुर्वासा ऋषि का महाराज अंबरीष को शाप—100
56. प्रतिकूलता के प्रति सही सोच—47 144. प्रणाम लेने का अधिकार—101
57. कबीर के डूब जाने का निश्चय—47 145. क्रोध आने पर समय दें—101
58. जीवन की सार्थकता—48 146. भगवान् के लिए समर्पित संगीत ही सामाजिक समरसता ला सकती है—103
59. कबीर की दीक्षा और गुरुमंत्र—48 147. मन चंगा तो कठौती में गंगा—104
60. शांत-संतुलित मस्तिष्क—49 148. वह अस्पृश्य है—105
61. छोटे बनकर रहो—49 149. प्रेरणादायक आचरण—106
62. धूर्त से बचें—50 150. अच्छे और बुरे व्यति की खोज—107
63. सबसे बड़ा मूर्ख—50 151. समर्थ का भिक्षा माँगना उचित नहीं—107
64. समस्या का समाधान—51 152. पीड़ितों का कल्याण—108
65. महापुरुषों की पहचान—51 153. गाँव का नाई—109
66. मूसा की क्षमा याचना—52 154. महर्षि रैय—110
67. जन्नत कहाँ है—53 155. उाराधिकारी का चयन—111
68. गांधीजी का विचित्र देश—53 156. पीड़ा निवारण सबसे बड़ा धर्म—112
69. विराट् का अनुभव—53 157. अपरिग्रह—113
70. आचरण—54 158. कलुषित भावनाएँ—113
71. दृष्टिहीन व्यति के हाथ में लालटेन—54 159. कर्म दर्शन—114
72. प्रेमपूर्ण व्यवहार—55 160. प्रव्रज्या के अधिकारी—115
73. सौम्यता का भूख स्नेह—55 161. सेवा-सहायता उद्बोधन का विषय नहीं जीवन जीने की कला है—116
74. गिरगिट की कला—56 162. वाणी की मिठास—117
75. आशा में मुदिता—56 163. सर्वोच्च साधना—118
76. आप्तवचन—57 164. जितना है, उसमें संतोष करने का प्रयास—118
77. वैजू को ज्ञान—57 165. स्वयं की असफलता और दूसरों की सफलता—119
78. दाता—58 166. विनम्र का अस्तित्व—120
79. जीवन का अर्थ है— सच्ची सुगंध—58 167. मृत्यु—120
80. कठिन तपश्चर्या—59 168. अस्थियों के कलश का अनुष्ठान—121
81. अहंकारी का पतन—59 169. आप मेरा हाथ पकड़ लो—122
82. शति का सही उपयोग—60 170. भगवान् तो भाव के भूखे—122
83. आत्मीयता—60 171. भीख माँगने का विकल्प—123
84. काम करने की आदत—61 172. भगवान् का आशीर्वाद—124
85. रूप की अपेक्षा गुणों का महव—62 173. श्रद्धा—125
86. समस्या का समाधान—62 174. सहृदयता का साधारण प्रत्युर—125
87. जीवन और मृत्यु में बहस—63 175. धैर्यवान साहसी—126
88. ईसा की गिरतारी—63 176. सुई के साथ विनम्रता का उपहार—127

The Author

Mukti Nath Singh

मुक्ति नाथ सिंह
एम.कॉम. की पढ़ाई समाप्त करने के पश्चात् 1958 ई. में जीवन बीमा निगम में योगदान दिया तथा कई पदों पर पद स्थापित होने के पश्चात् 1992 के अंत में सहायक मंडल प्रबंधक के रूप में सेवानिवृत्ति हुई।
तदुपरांत स्वाध्याय में रत होकर रामायण, महाभारत, पुराण, भागवत गीता आदि जैसे बहुत सारे ग्रंथों का पारायण किया। यह पुस्तक इन ग्रंथों तथा पत्रिकाओं से प्राप्त हितकारी आख्यान एवं कथाओं का एक संगृहीत रूप है।

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