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‘हमारा संविधान : एक पुनरावलोकन’ पुस्तक विधि विशेषज्ञों से परे का प्रयास है। इसमें नयापन है। संविधान के उन सभी पहलुओं से परिचित कराने की कोशिश है, जो अछूते और अनसुलझे हैं। भारत के संविधान पर प्रश्न पहले दिन से है। इसका अपना इतिहास है। क्या वे प्रश्न संविधान से अपरिचय के कारण हैं? अगर ऐसा है तो जिस संविधान को व्यंग्य में वकीलों का स्वर्ग कहा जाता है, उसके दरवाजे और खिड़कियों को यह पुस्तक खोलती है। साफ-सुथरी प्राणवायु के लिए संभावना पैदा करती है। संपादकद्वय अपने अनुभव से कह सकते हैं कि बड़े-बड़े वकील भी संविधान से अपरिचित हैं। क्योंकि यह अत्यंत जटिल है। यह सुबोध कैसे बने? इस प्रश्न को जो भी हल करना चाहेगा, उसके लिए इस पुस्तक में भरपूर सामग्री है। संविधान की जटिलता भी एक बड़ा कारण है कि यह एक सामान्य नागरिक का प्रिय ग्रंथ नहीं बन पाया है। जैसा कि कोई नागरिक अपने धर्म ग्रंथ को मानता है, संविधान को राज्य व्यवस्था का धर्म ग्रंथ होना चाहिए। यह जब तक नहीं होता, तब तक विमर्श चलते रहना चाहिए। कोई भी विमर्श तभी सार्थक और सफल होता है, जब वह मूल प्रश्न को संबोधित करे। प्रश्न है कि भारत के संविधान पर विमर्श के लिए मूल प्रश्न की पहचान कैसे हो? इसका उत्तर अत्यंत सरल है। संविधान की कल्पना में स्वतंत्रता का लक्ष्य स्पष्ट था। भारत के संविधान में इस तरह स्वतंत्रता और राष्ट्र का पुनर्निमाण नाम के दो लक्ष्य निहित हैं। क्या वे प्राप्त किए जा सके? यही वह मूल प्रश्न है।
भारत की अपनी प्रकृति है, भारत की अपनी संस्कृति है तथा भारत की अपनी विकृति भी है। संस्कृति के प्रकाश में ही हम अपनी विकृति एवं प्रकृति को जान सकते हैं। इसी के प्रकाश में हमें अपने वर्तमान को गढ़ना है। हमारा वर्तमान संविधान हमारे राज्य के धर्म को विवेचित करता है। यह संविधान तत्त्वतः कितना भारतीय एवं कितना अभारतीय है, इस संविधान के निर्माण की प्रक्रिया को तर्क की कसौटी पर कसा जाना चाहिए, इसके अतीत एवं वर्तमान का अध्ययन होना चाहिए। इसीलिए यह पुस्तक है ‘हमारा संविधान : एक पुनरावलोकन’। ‘मंथन’ के दो विशेष अंकों में छपे शोधपूर्ण लेखों का संविधान पर संकलन है यह पुस्तक। इसमें भारत के संविधान को रामराज्य की दृष्टि से देखने और जाँचने के बौद्धिक प्रयास हैं। संविधान से एक शासन-व्यवस्था निकलती है। भारत में रामराज्य को किसी भी शासन प्रणाली का सर्वोच्च आदर्श माना गया है। महात्मा गांधी ने भी स्वतंत्र भारत का लक्ष्य रामराज्य ही बताया था। गांधी-150 के वर्ष में ‘मंथन’ ने एक बीड़ा उठाया। वह भारत की संविधान यात्रा का पुनरावलोकन है। यह कार्य जितना सरल और सहज मान लिया जाता है, उतना है नहीं। वास्तव में बहुत कठिन है, जटिल है। अगर कोई अंधी सुरंग से गुजरे और किसी किरण की आशा दूर-दूर तक न हो तो क्या पुनरावलोकन संभव है? संविधान का संबंध इतिहास के उतार-चढ़ाव से जितना होता है, उससे ज्यादा उसे भविष्य दृष्टि का सुविचारित आलेख माना जाता है। यह पुस्तक उस पुनरावलोकन का द्वार खोलेगी, ऐसा हमारा विश्वास है।
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अनुक्रम
भूमिका —Pgs. 7
1. भारत का संविधान : अंतर्कथा —रामबहादुर राय —Pgs. 15
2. भारत के संवैधानीकरण की राजनीतिक और वैचारिक आधारशिला —प्रो. बिद्युत चक्रवर्ती —Pgs. 36
3. संवैधानिक लोकतंत्र और मूलभूत ढाँचे की अवधारणा —रविशंकर प्रसाद —Pgs. 46
4. भारतीय संविधान एवं संघीयता —प्रो. रेखा सक्सेना —Pgs. 61
5. संसदीय जनतंत्र : संविधान और उसका कार्यान्वयन —सुमित्रा महाजन —Pgs. 73
6. संविधान : संसदीय व्यवस्था और ग्राम स्वराज्य —डॉ. चंद्रशेखर प्राण —Pgs. 80
7. सांस्थिक संवाद के माध्यम से सहकारी संवैधानिक सुधार —गोविंद गोयल —Pgs. 93
8. भारतीय संविधान और सामाजिक न्याय —डॉ. ओ.पी. शुक्ला —Pgs. 111
9. भारत का संविधान और रियासतें —देवेश खंडेलवाल —Pgs. 133
10. भारतीय संविधान में अल्पसंख्यक —आशुतोष कुमार झा —Pgs. 143
11. भारत में महिला अधिकारों के संघर्ष का इतिहास —अलिशा ढींगरा —Pgs. 154
12. भारतीय संविधान और परिवार संस्था —प्रो. भगवती प्रकाश शर्मा —Pgs. 165
13. भारतीय संविधान का अधिकृत हिंदी पाठ —ब्रज किशोर शर्मा —Pgs. 172
14. संविधान संशोधन प्रक्रिया जटिल या सरल —डी.पी. त्रिपाठी —Pgs. 182
15. संविधान की औपनिवेशिक पृष्ठभूमि और सुधार के कुछ उपाय —डॉ. जे.के. बजाज —Pgs. 190
16. राजनीतिक दल, संविधान और चुनाव आयोग —शहाबुद्दीन याकूब कुरैशी —Pgs. 208
17. संविधान और राजभाषा —ब्रज किशोर शर्मा —Pgs. 217
18. संविधान की पहली प्रति एक कलात्मक प्रस्तावना —जवाहरलाल कौल —Pgs. 225
19. भारतीय संविधान और महात्मा गांधी —डॉ. रमेश भारद्वाज —Pgs. 231
20. भारत की संविधान सभा और भारतीय समाजवादी —आनंद कुमार —Pgs. 240
21. डॉ. भीमराव आंबेडकर और संविधान —प्रो. विजय के. कायत —Pgs. 246
22. भारतीय संविधान और डॉ. राममनोहर लोहिया —रघु ठाकुर —Pgs. 252
23. संविधान निर्माण की प्रक्रिया में दीनदयाल उपाध्याय —डॉ. महेश चंद्र शर्मा —Pgs. 257
24. चुनाव महत्त्वपूर्ण हैं, परंतु काफी नहीं —डॉ. विनय सहस्रबुद्धे —Pgs. 263
संविधान सभा के ऐतिहासिक भाषण
25. गणतंत्र ही हमारी नियति —पं. जवाहरलाल नेहरू —Pgs. 273
26. क्रांतिकारी परिवर्तन संभव —डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन —Pgs. 287
27. भारतीयता का अंश नहीं —डॉ. रघुबीर —Pgs. 296
28. संविधान में हैं वर्तमान पीढ़ी के विचार —डॉ. भीमराव रामजी आंबेडकर —Pgs. 302
29. विधिनिर्माताओं के लिए बौद्धिक उपकरण जरूरी —डॉ. राजेंद्र प्रसाद —Pgs. 317
डॉ. महेश चंद्र शर्मा
जन्म : राजस्थान के चुरू कस्बे में 7 सितंबर, 1948 को।
शिक्षा : बी.ए. ऑनर्स (हिंदी), एम.ए. एवं
पी-एच.डी. (राजनीति शास्त्र)।
कृतित्व : 1973 में प्राध्यापक की नौकरी छोड़कर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक बने। आपातकाल में अगस्त 1975 से अप्रैल 1977 तक जयपुर जेल में ‘मीसा’ बंदी रहे। सन् 1977 से 1983 तक अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् में उत्तरांचल के संगठन मंत्री, 1983 से 1986 तक राजस्थान विश्वविद्यालय से पी-एच.डी. की उपाधि के लिए ‘दीनदयाल उपाध्याय का राजनैतिक जीवन चरित—कर्तृत्व व विचार सरणी’ विषय पर शोधकार्य। 1983 से साप्ताहिक ‘विश्ववार्ता’ व ‘अपना देश’ स्तंभ नियमित रूप से भारत के प्रमुख समाचार-पत्रों में लिखते रहे।
सन् 1986 में ‘दीनदयाल शोध संस्थान’ के सचिव बने। शोध पत्रिका ‘मंथन’ का संपादन। 1986 से वार्षिक ‘अखंड भारत स्मरणिका’ का संपादन। 1996 से 2002 तक राजस्थान से राज्यसभा सदस्य एवं सदन में भाजपा के मुख्य सचेतक रहे। 2002 से 2004 तक नेहरू युवा केंद्र के उपाध्यक्ष। 2006 से 2008 तक भाजपा राजस्थान के अध्यक्ष। 2008-2009 राजस्थान विकास एवं निवेश बोर्ड के अध्यक्ष। 1999 से एकात्म मानवदर्शन अनुसंधान एवं विकास प्रतिष्ठान के अध्यक्ष। पंद्रह खंडों में हिंदी व अंग्रेजी में प्रकाशित ‘पं. दीनदयाल उपाध्याय संपूर्ण वाङ्मय’ के संपादक।