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हिंदी के ऐतिहासिक संदर्भ में जहाँ अपभ्रंश, अवहट्ट और पुरानी हिंदी महत्त्व है वहीं उसके स्वरूप-निर्धारण में उसकी उपभाषाओं-बोलियों का, विशेष रूप से ब्रजभाषा और अवधी का, अप्रतिम महत्त्व है। हिंदी की प्रमुख बोलियों और उनके पारस्परिक संबंध पर भी विवेचन प्रस्तुत किया गया है। हिंदी भाषा के मानकीकरण की समस्या भी है। प्रयोग क्षेत्र में हिंदी की कोई समानता नहीं है, जिसको हिंदी क्रियाओं के विविध प्रयोगों को लेकर प्रस्तुत किया गया है। इससे दो प्रयोगों में सूक्ष्म अंतर स्पष्ट हो सकेगा। शुद्ध हिंदी लिखने के लिए हिंदी व्याकरण के प्रमुख नियमों का ज्ञान भी आवश्यक है। अपनी अभिव्यक्ति का रंग-रूप निखारने के लिए व्याकरणसम्मत भाषा का प्रयोग अच्छा रहता है।
पुस्तक की विषय-वस्तु बहुत सरल तथा सहज भाषा में प्रस्तुत की गई है, जिससे हिंदी भाषा के जिज्ञासु उससे अधिकाधिक लाभान्वित हो सकें।
भाषा विज्ञान तथा हिंदी भाषा के विविध पक्षों पर अनुसंधान के साथ-साथ साहित्य की नवीन विधाओं की ओर प्रवृत्त। मदन मोहन मालवीय पुरस्कार, अयोध्याप्रसाद खत्री पुरस्कार, नातालि पुरस्कार आदि से सम्मानित। आगरा तथा अलीगढ़ विश्वविद्यालय से संबद्ध रहे। भूतपूर्व प्रोफेसर तथा अध्यक्ष, हिंदी तथा प्रादेशिक भाषाएँ, लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय प्रशासन अकादमी, मसूरी। पूर्व निदेशक, वृंदावन शोध संस्थान, वृंदावन। भारत सरकार के अनेक मंत्रालयों की राजभाषा सलाहकार समितियों के सदस्य। रॉयल एशियाटिक सोसाइटी ऑफ इंग्लैंड के फेलो।
प्रमुख रचनाएँ : अंग्रेजी-हिंदी अभिव्यक्ति कोश, अंग्रेजी-हिंदी शब्दों का ठीक प्रयोग, भारतीय भाषाएँ, शब्दश्री, अखिल भारतीय प्रशासनिक कोश, अनुवाद कला : सिद्धांत और प्रयोग, कामकाजी हिंदी, व्यावहारिक हिंदी, विधा-विविधा, भाषा-भूगोल, हिंदी भाषा शिक्षण, हिंदी की बेसिक शब्दावली, हिंदी काव्य भाषा की प्रवृत्तियाँ, रोडा कृत राउलवेल, हिंदी साहित्य की नवीन विधाएँ, उभरी-गहरी रेखाएँ (सं.), हिंदी भाषा में अक्षर तथा शब्द की सीमा, ब्रजभाषा तथा खड़ी बोली का तुलनात्मक अध्ययन, हिंदी साहित्य का वृहद् इतिहास : अद्यतन काल (सं.), हिंदी भाषा : स्वरूप और विकास, राजभाषा हिंदी, मानक हिंदी वर्तनी, संक्षेपण और पल्लवन, प्रयोजनमूलक हिंदी।