₹300
अनेक कारणों से भारत में साहित्य-कलाओं के प्रति अनुराग का ठीक-ठीक आकलन नहीं किया गया है। दुष्ट-दृष्टि संपन्न राजनेताओं ने अपने हित स्वार्थों के संदर्भ में भाषा की राजनीति को आग के रूप में इस्तेमाल किया है, किंतु भारत की जनता ने उस राजनीति को ज्यादा हवा नहीं दी। हिंदी साहित्य तथा अन्य कलाओं के प्रति अपने राष्ट्रधर्मी व्यवहार के कारण सभी वर्गों में स्वीकृत रही है तथा अन्य माध्यमों में आसमान तोड़ घेरे में फैलती रही है। एशिया में भी प्रयोजनमूलकता के संदर्भ में अपनी उपयोगिता को रेखांकित करती हुई, सभी माध्यमों और सिनेमा के कारण हिंदी लोकप्रियता के शिखर पर सक्रिय रही है।
हिंदी की भविष्य-दृष्टि एशिया के व्यापारिक जगत् में धीरे-धीरे अपना स्वरूप बिंबित कर भविष्य की अग्रणी भाषा के रूप में स्वयं को स्थापित कर रही है। वह भी उस दौर में जब यंत्रारूढ़ अंग्रेजी अपने वर्चस्व का परचम लहरा रही है। तथापि इसी नए दौर में एशिया में एशियाई भाषाओं के अंतर्संबंध नई करवट ले रहे हैं, उनकी अवहेलना करना दुष्ट-दृष्टि संपन्न राजनेताओं द्वारा उत्पन्न भ्रम और भय का लक्ष्य तो है, किंतु उस आशंका की बुनियादें हर आशंका की बुनियादों की तरह खोखली हैं। आइए, हम नई भविष्य-दृष्टि का स्वागत करें।
हिंदी के वैश्विक स्वरूप का दिग्दर्शन कराती एक व्यावहारिक पुस्तक।
____________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________
अनुक्रम
पुरोवाक्—7
1. हिंदी और भारतीय भाषाएँ—13
2. पश्चिमी देशों में हिंदी—22
3. भाषा और संस्कृति—29
4. हिंदी की भारतेतर विश्वस्दृष्टि—38
5. भारत और एशियाई देशों के बीच सांस्कृतिक संबंध : हिंदी की भूमिका—49
6. अंतरराष्ट्रीय भाषा के मानक और हिंदी—62
7. विश्व भाषा की नई भूमिकाओं के संदर्भ में हिंदी—69
8. अंग्रेजी से गुलामी मजबूत होती है—78
9. विश्व भाषा के रूप में हिंदी—91
10. हिंदी के विकास में संस्थाओं की भूमिका—97
11. हिंदी और महादेश—103
12. हिंदी के प्रचार-प्रसार में विदेशी विद्वानों का योगदान—108
13. भावात्मक एकता की राष्ट्रीय संकल्पना—113
14. भारत और विश्व पटल पर हिंदी का भविष्य—117
15. हिंदी और विश्व भाईचारा—127
16. हिंदी की भविष्य दृष्टि—134
नए साहित्य के बहुचर्चित और प्रख्यात लेखक गंगाप्रसाद विमल का जन्म 1939 में उत्तरकाशी में हुआ। अनेक विद्यालयों और विश्वविद्यालयों में शिक्षा प्राप्त करने के उपरांत वे दिल्ली विश्वविद्यालय से जुड़े और चौथाई शताब्दी अध्यापन करने के बाद भारत सरकार के केंद्रीय हिंदी निदेशालय के निदेशक नियुक्त हुए, जहाँ उन्होंने सिंधी और उर्दू भाषा की राष्ट्रीय परिषदों का भी काम सँभाला। आठ बरस वे ‘यूनेस्को कूरियर’ के हिंदी संस्करण के संपादक भी रहे और भारतीय भाषाओं के द्विभाषी-त्रिभाषी शब्दकोशों के प्रकाशन में भी सक्रिय रहे। सन् 1990 के दशक में वे अतिथि लेखक के रूप में इंग्लैंड आमंत्रित किए गए। सन् 1999 में वे जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में अनुवाद के प्रोफेसर नियुक्त हुए तथा सन् 2000 में भारतीय भाषा केंद्र के अध्यक्ष नियुक्त किए गए। उनके अब तक पाँच उपन्यास, एक दर्जन कविता-संग्रह और इतने ही कहानी-संग्रह तथा अन्यान्य गद्य पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। उन्होंने विश्वभाषाओं की अनेक पुस्तकों का अनुवाद भी किया है। उनकी स्वयं की भी अनेक पुस्तकों का विदेशी भाषाओं में अनुवाद हुआ है। राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय अलंकरणों से सम्मानित स्वतंत्र लेखक के रूप में सक्रिय हैं।